मुद्रा (Currency) कैसे काम करती है,देश की Economy पर करेंसी कैसे प्रभाव डालती है?

करेंसी (जैसे भारत में रुपया, अमेरिका में डॉलर) एक तरह का विश्वास-पत्र है।

करेंसी (जैसे रुपया, डॉलर या यूरो) एक देश का पैसा होता है। ये सरकार या केंद्रीय बैंक (जैसे भारत में RBI) द्वारा बनाई और जारी की जाती है

किसी देश की करेंसी (मुद्रा) कैसे काम करती है? –

मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था में लेन-देन का सबसे मुख्य साधन होती है।

  • मुद्रा का काम है सामान या सेवाओं के बदले में भुगतान करना। यानी बाजार में कोई चीज़ खरीदनी हो तो नोट या सिक्के (मुद्रा) देकर उसे खरीदा जाता है।
  • सरकार या केंद्रीय बैंक (जैसे भारत में RBI) मुद्रा छापती है और उसकी कीमत तय करती है। यह कीमत दूसरे देशों की मुद्रा के मुकाबले बदलती रहती है।

खरीद-बिक्री के लिए: लोग इसे दुकानों पर सामान खरीदने, सैलरी लेने या व्यापार करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। ये एक “मीडियम ऑफ एक्सचेंज” है, यानी दो चीजें बदलने की बजाय पैसा इस्तेमाल करके आसानी से ट्रांजेक्शन होता है। यह चीजों और सेवाओं को खरीदने और बेचने का सबसे आसान तरीका है। आप पैसे देकर सामान खरीदते हैं।

मूल्य का मापन: यह बताता है कि किसी चीज की कीमत कितनी है। जैसे, एक पेन ₹10 का है।

मूल्य कैसे तय होता है: करेंसी की वैल्यू दूसरे देशों की करेंसी से तुलना करके तय होती है। जैसे, 1 डॉलर = 88रुपये। ये वैल्यू बाजार में “फॉरेक्स मार्केट” में सप्लाई (कितना पैसा उपलब्ध है) और डिमांड (कितना लोग खरीदना चाहते हैं) से बदलती रहती है। अगर ज्यादा लोग डॉलर खरीदना चाहें, तो डॉलर महंगा हो जाता है।

डिजिटल और फिजिकल: आजकल ज्यादातर करेंसी डिजिटल होती है (बैंक अकाउंट में), लेकिन नोट और सिक्के भी चलते हैं। केंद्रीय बैंक इसे प्रिंट करके या डिजिटल तरीके से जारी करता है, लेकिन ज्यादा प्रिंट करने से वैल्यू कम हो सकती है।

भविष्य के लिए बचाना: लोग इसे बचाकर रखते हैं ताकि भविष्य में इसका इस्तेमाल कर सकें।

सरकार और केंद्रीय बैंक का नियंत्रण: देश की सरकार (जैसे भारत में RBI) ही यह तय करती है कि कितनी करेंसी छापनी है और उसे कैसे मैनेज करना है।

करेंसी एक ऐसा माध्यम है जिस पर देश के सभी लोगों को भरोसा होता है कि इसके बदले में उन्हें चीजें मिलेंगी।

मुद्रा की स्थिरता क्या है और कैसे तय होती है?

करेंसी की स्थिरता का मतलब है कि उसकी कीमत (दूसरे देशों की करेंसी के मुकाबले) बहुत ज्यादा न बदले। यह मुख्य रूप से डिमांड (मांग) और सप्लाई (आपूर्ति) के सिद्धांत पर तय होती है, जिसे विनिमय दर (Exchange Rate) कहते हैं।

  • मुद्रा की स्थिरता मतलब उसकी कीमत में तेज़ उछाल या गिरावट न आना।
  • अगर आज 1 डॉलर = ₹88 है, तो ये बुरी तरह बदलती न रहे, तभी मुद्रा “स्थिर” मानी जाएगी।
  • मुद्रा स्थिर रखने के लिए देश की सरकार और केंद्रीय बैंक कई उपाय करते हैं, जैसे ब्याज दर जोड़ना, विदेशी मुद्रा भंडार संभालना, बाज़ार में मुद्रा की मात्रा बढ़ाना या घटाना।

डिमांड (मांग): अगर कोई देश आर्थिक रूप से मजबूत है और लोग उसका सामान या उसकी संपत्ति खरीदना चाहते हैं, तो उन्हें उस देश की करेंसी चाहिए होगी। मांग बढ़ेगी तो करेंसी मजबूत होगी।

सप्लाई (आपूर्ति): अगर सरकार बहुत ज्यादा करेंसी छाप देती है, तो उसकी सप्लाई बढ़ जाती है। सप्लाई बढ़ेगी तो करेंसी कमजोर होगी।

उदाहरण: जब किसी अमेरिकी कंपनी को भारत में निवेश करना होता है, तो उसे डॉलर के बदले रुपया चाहिए होता है, जिससे रुपये की मांग बढ़ती है और वह मजबूत होता है।

मुख्य तरीका: इंटरेस्ट रेट (ब्याज दर) बदलना। अगर महंगाई बढ़े, तो ब्याज बढ़ाकर पैसे की सप्लाई कम करते हैं, ताकि लोग कम उधार लें और खर्च कम करें।

अन्य तरीके: करेंसी रिजर्व (विदेशी पैसा रखना), ट्रेड बैलेंस (निर्यात-आयात संतुलन) और आर्थिक नीतियां। स्थिरता अच्छी हो तो लोग भरोसा करते हैं, निवेश बढ़ता है।

देश की इकोनॉमी पर करेंसी कैसे प्रभाव डालती है?

करेंसी का मजबूत या कमजोर होना अर्थव्यवस्था पर सीधा असर डालता है

करेंसी इकोनॉमी का बड़ा हिस्सा है। ये दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं – जैसे चक्र (सर्कल)।

  • मजबूत करेंसी के फायदे/नुकसान:
    1. फायदा: आयात सस्ता होता है (जैसे तेल, मशीनरी सस्ती), महंगाई कम रहती है। विदेशी निवेश आता है।
    2. नुकसान: निर्यात महंगा हो जाता है (विदेशी खरीदार कम खरीदते), फैक्टरियां बंद हो सकती हैं, बेरोजगारी बढ़ सकती है।
  • कमजोर करेंसी के फायदे/नुकसान:
    • फायदा: निर्यात सस्ता, ज्यादा बिक्री, इकोनॉमी ग्रोथ। टूरिस्ट ज्यादा आते हैं।
    • नुकसान: आयात महंगा (पेट्रोल, इलेक्ट्रॉनिक्स), महंगाई बढ़ती है, विदेशी निवेश भागता है।
  • कुल प्रभाव: करेंसी इकोनॉमी को बैलेंस रखती है। अगर बहुत मजबूत हो, तो ग्रोथ रुक सकती है; बहुत कमजोर हो, तो गरीबी बढ़ सकती है। सरकार इसे कंट्रोल करके रोजगार, महंगाई और ग्रोथ संभालती है। उदाहरण: चीन की कमजोर युआन से निर्यात बढ़ा, इकोनॉमी तेज चली।
  • कमजोर मुद्रा से मूल्यवृद्धि (महंगाई) बढ़ सकती है, क्योंकि बाहर से खरीदना महंगा पड़ता है।
  • अर्थव्यवस्था में निवेश (Investment) और व्यापार (Trade) भी मुद्रा की स्थिति पर निर्भर करता है।

मुद्रा को कौन से कारण प्रभावित करते हैं?

करेंसी की वैल्यू ऊपर-नीचे होने के कई कारण होते हैं।

  • इंटरेस्ट रेट: अगर किसी देश में ब्याज ज्यादा हो, तो विदेशी निवेशक अपना पैसा वहां लाते हैं, करेंसी मजबूत होती है।
  • महंगाई (इन्फ्लेशन): ज्यादा महंगाई से करेंसी की खरीदने की ताकत कम होती है, वैल्यू गिरती है।
  • आर्थिक विकास (GDP ग्रोथ): तेज विकास से करेंसी मजबूत, क्योंकि लोग ज्यादा कमाते हैं और निवेश आता है।
  • राजनीतिक स्थिरता: चुनाव, युद्ध या भ्रष्टाचार से भरोसा कम होता है, करेंसी गिरती है।
  • ट्रेड बैलेंस: ज्यादा निर्यात (बेचना) से करेंसी मजबूत, ज्यादा आयात (खरीदना) से कमजोर।
  • वैश्विक घटनाएं: जैसे तेल की कीमतें बढ़ना (भारत जैसे आयातक देशों के लिए बुरा) या महामारी।
  • स्पेकुलेशन: बड़े निवेशक बाजार में सट्टा लगाते हैं, वैल्यू अचानक बदल जाती है।
  • देश की अर्थव्यवस्था (Economy): जितना मज़बूत व्यापार और उत्पादन होगा, मुद्रा भी उतनी मजबूत रहेगी।
  • रोजगार और औद्योगिक उत्पादन: ज्यादा रोजगार और ज्यादा उत्पादन से मुद्रा मजबूत होती है।
  • विदेशी मुद्रा भंडार: देश के पास जितना ज्यादा डॉलर या दूसरी विदेशी मुद्रा होगी, उसकी मुद्रा उतनी सुरक्षित रहेगी।

विश्व करेंसी में कोई देश कैसे डोमिनेट करता है?

विश्व करेंसी पर किसी देश का हावी होना उसकी आर्थिक शक्ति और भरोसे पर निर्भर करता है। अमेरिका का डॉलर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। दुनिया में कुछ करेंसी “रिजर्व करेंसी” कहलाती हैं, यानी दूसरे देश इन्हें बचत के लिए रखते हैं। अमेरिका का डॉलर सबसे बड़ा डोमिनेटर है (60% से ज्यादा वैश्विक ट्रेड डॉलर में)।

  • बड़ी इकोनॉमी: अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है (GDP 25 ट्रिलियन डॉलर), भरोसा ज्यादा।
  • ट्रस्ट और स्थिरता: डॉलर की वैल्यू लंबे समय से स्थिर, अमेरिकी सरकार मजबूत।
  • ऑयल और ट्रेड: तेल हमेशा डॉलर में बिकता है (पेट्रोडॉलर), वैश्विक व्यापार डॉलर पर निर्भर।
  • इतिहास: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रेटन वुड्स समझौते से डॉलर गोल्ड स्टैंडर्ड बना, फिर रिजर्व।
  • फाइनेंशियल सिस्टम: , आसान ट्रांजेक्शन।
  • अमेरिका का वैश्विक प्रभुत्व ज्यादा है क्योंकि वह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और उसकी मुद्रा (डॉलर) में अन्य देश लेन-देन करते हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र: अगर वह देश एक बड़ा वित्तीय केंद्र है (जैसे न्यूयॉर्क, लंदन), जहां पैसा आसानी से ट्रांसफर किया जा सकता है, तो उसकी करेंसी हावी हो जाती है।
  • इसके अलावा कुछ देशों की मुद्रा भी प्रचलित हैं जैसे यूरोप का यूरो (Euro), ब्रिटेन का पाउंड (Pound), जापान का येन (Yen)।

जो देश अपनी करेंसी में ज्यादा व्यापार और विश्वसनीयता बना लेते हैं, वे विश्व करेंसी पर हावी हो जाते हैं।

अगर भारत अमेरिका से मोबाइल खरीदता है, तो भुगतान डॉलर में होता है।
इसलिए भारत को डॉलर की ज़रूरत होती है — और वो निर्यात (export) बढ़ाता है ताकि माल बेचकर डॉलर कमा सके।
अगर रुपया कमज़ोर हो गया, तो भारत के लिए मोबाइल महंगे पड़ जाएंगे।

Credit Rating क्या होता है ,भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया भर की रेटिंग एजेंसी का आउटलुक

क्रेडिट रेटिंग एक तरह का "स्कोरकार्ड" होता है, जो किसी देश, कंपनी या व्यक्ति को उधार चुकाने की क्षमता के बारे में बताता है। 

अगर आपका रिपोर्ट कार्ड अच्छा है, मतलब आपको अच्छी ग्रेड मिली है, तो इसका मतलब है कि आप अपना उधार समय पर चुकाने की पूरी कोशिश करते हैं और बैंकों को आप पर भरोसा है। अगर रेटिंग खराब है, तो इसका मतलब है कि आपको उधार चुकाने में मुश्किल आ सकती है।सरल शब्दों में, यह बताता है कि क्या आप या आपका देश कर्ज (लोन) समय पर वापस कर पाएंगे या नहीं। यह रेटिंग AAA से लेकर D तक की ग्रेडिंग पर आधारित होती है – AAA सबसे अच्छा (बहुत सुरक्षित) और D सबसे खराब (डिफॉल्ट, यानी कर्ज न चुका पाना)।

 क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां इस काम के लिए स्पेशल कंपनी होती हैं, जैसे भारत में CIBIL, CRISIL, ICRA, CARE आदि ,दुनिया में कुछ बड़ी एजेंसियां हैं जो यह रेटिंग देती हैं:

  • Fitch
  • Moody’s
  • S&P (Standard & Poor’s)

क्रेडिट रेटिंग कैसे काम करती है?

  • जांच-पड़ताल: एजेंसी उस देश या कंपनी के आर्थिक डेटा को देखती है – जैसे GDP (कुल उत्पादन), कर्ज का बोझ, कमाई, सरकारी नीतियां, राजनीतिक स्थिरता आदि। भारत के मामले में, वे बजट, टैक्स कलेक्शन, विदेशी निवेश और महंगाई जैसी चीजें चेक करते हैं।
  • रिस्क का आकलन: वे सोचते हैं – “क्या यह देश कर्ज चुका पाएगा?” अगर अर्थव्यवस्था मजबूत है (जैसे अच्छी ग्रोथ, कम बेरोजगारी), तो ऊंची रेटिंग। अगर मुश्किलें हैं (जैसे ज्यादा कर्ज, युद्ध या महामारी), तो कम रेटिंग।
  • रिपोर्ट जारी: हर कुछ महीनों में वे “आउटलुक” या “रिव्यू” जारी करते हैं – स्टेबल (स्थिर), पॉजिटिव (सकारात्मक, सुधार की उम्मीद) या नेगेटिव (नकारात्मक, खतरा)। रेटिंग बदलने पर (अपग्रेड या डाउनग्रेड) पूरी दुनिया में खबर बन जाती है।
  • देश की आर्थिक स्थिति कैसी है?
  • सरकार कितना कर्ज ले रही है?
  • क्या सरकार समय पर कर्ज चुका रही है?
  • देश में राजनीतिक स्थिरता है या नहीं?
  • विदेशी निवेश कितना आ रहा है?

आउटलुक क्या होता है?

सिर्फ रेटिंग नहीं, “आउटलुक” भी दिया जाता है—तीन तरह के आउटलुक:

Positive (सुधर सकता है),

Stable (जैसा है वैसा रहेगा),

और Negative (गिर सकता है)

इसका इस्तेमाल निवेशक अंदाजा लगाने को करते हैं कि आने वाले समय में उस देश या कंपनी की हालत सुधरेगी या खराब होगी।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया की रेटिंग एजेंसियों का आउटलुक (सितंबर 2025 तक)

भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया भर की रेटिंग एजेंसी का भरोसा बढ़ाता जा रहा है.

जापान की रेटिंग एंड इन्वेस्टमेंट इंफॉर्मेशन (R&I) ने भारत की लॉन्ग टर्म सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड दिया है. ये साल 2025 में भारत को रेटिंग एजेसियों से मिला तीसरा अपग्रेड है. R&I ने क्रेडिट रेटिंग को ट्रिपल B (BBB) से अपग्रेड कर ट्रिपल B प्लस (BBB +) कर दिया है. इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर आउटलुक भी स्टेबल रखा है. इससे पहले इससे पहले S&P और मॉर्निंगस्टार DBRS भी भारत की आर्थिक स्थिति पर भरोसा जता चुके हैं. अगस्त 2025 में  S&P ने रेटिंग को ट्रिपल B माइनस (BBB-) से ट्रिपल B (BBB) और मई में मॉर्निंगस्टार DBRS ने ट्रिपल B Low ( BBB Low) से ट्रिपल B ( BBB) किया है.

क्या है रेटिंग में सुधार का मतलब ?

रेटिंग का मतलब है कि कोई देश अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने में कितना सक्षम है. इससे इन देशों में आर्थिक जोखिमों के स्तर का पता चलता है और इसी आधार पर निवेश या कर्ज का प्रवाह तय होता है. ट्रिपल B आमतौर पर निवेश योग्य रेटिंग मानी जाती है. रेटिंग जितनी अपग्रेड होती है वो देश उतना कम जोखिम वाला और उतना ही ज्यादा निवेश के योग्य माना जाता है ऐसे में कर्ज दरें घटती हैं और विदेशी निवेश बढता है जो आगे अर्थव्यवस्था को और मजबूती देता है

दुनिया की नजर में भारत –

भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है, लेकिन कुछ चुनौतियाँ भी हैं जैसे महंगाई, बेरोज़गारी और फिस्कल घाटा।

रेटिंग एजेंसियां भारत की नीतियों और सुधारों को लगातार देखती हैं।

अगर भारत सुधार करता है और कर्ज कम लेता है, तो रेटिंग बेहतर हो सकती है।

IMF, World Bank, ADB जैसी संस्थाएं भी भारत की ग्रोथ को 6.3% से 6.9% तक मान रही हैं

भारत कैसे सुधार कर रहा है?

  • GST सुधार और टैक्स सिस्टम को आसान बनाया गया।
  • मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसी योजनाओं से घरेलू उत्पादन बढ़ा।
  • बुनियादी ढांचे में निवेश – सड़कें, रेलवे, बंदरगाह आदि।
  • नियमों को सरल किया गया ताकि विदेशी निवेशक आसानी से व्यापार कर सकें।

CPI (Consumer Price Index )क्या होता है, अर्थव्यवस्था को समझने में कैसे मदद करता है |

CPI यानी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक एक ऐसा उपकरण है जो महंगाई (इन्फ्लेशन) को मापता है। यह बताता है कि रोजमर्रा की चीजें और सेवाएं जैसे खाना, कपड़े, घर का किराया, पेट्रोल, दवाइयां आदि की कीमत समय के साथ कितनी बढ़ रही है या घट रही है। यह आम आदमी (उपभोक्ताओं) के लिए बनाया गया सूचकांक है, जो उनके खर्चों पर फोकस करता हैऔर शहरी उपभोक्ताओं द्वारा खरीदे जाने वाले उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं की एक टोकरी की कीमतों में औसत बदलाव को ट्रैक करता है।

यह महंगाई को मापने के लिए एक प्रमुख संकेतक है। जब CPI बढ़ता है, तो इसका मतलब है कि लोगों को समान वस्तुएं और सेवाएं खरीदने के लिए अधिक खर्च करना पड़ता है, जिससे उनकी क्रय शक्ति (purchasing power) कम हो जाती है।

यह सरकार और अर्थशास्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था की सेहत को दिखाता है।

कैसे काम करता है?

CPI की गणना करने के लिए सरकार एक “बास्केट” तैयार करती है जिसमें रोज़मर्रा की चीज़ें और सेवाएँ शामिल होती हैं. हर बार इनकी कीमतें नोट की जाती हैं और वर्ष-दर-वर्ष/महीना दर महीना तुलना की जाती है. अगर इनकी कीमतें बढ़ती हैं तो CPI बढ़ जाता है, यानी महंगाई बढ़ रही है. अगर CPI घटे तो इसका मतलब कई चीज़ें सस्ती हो रही हैं, जो एक औसत परिवार के खर्च का प्रतिनिधित्व करती है। इस टोकरी में भोजन, कपड़े, परिवहन, चिकित्सा देखभाल और शिक्षा जैसी चीजें शामिल होती हैं।

  1. आधार वर्ष (Base Year) का चयन: एक आधार वर्ष तय किया जाता है, जिसके CPI को 100 माना जाता है।
  2. कीमतों का सर्वेक्षण: विभिन्न शहरों में उन टोकरी की वस्तुओं की कीमतों का मासिक या तिमाही सर्वेक्षण किया जाता है।
  3. सूचकांक की गणना: इन वर्तमान कीमतों की तुलना आधार वर्ष की कीमतों से की जाती है और एक सूचकांक (index) बनाया जाता है।

उदाहरण के लिए

यदि आधार वर्ष में टोकरी की कीमत ₹1,000 थी और अगले वर्ष वही टोकरी ₹1,100 की हो जाती है, तो CPI 110 हो जाएगा। इसका मतलब है कि महंगाई 10% बढ़ी है।

अर्थव्यवस्था को समझने में कैसे मदद करता है?

  • महंगाई को मापता है (इन्फ्लेशन ट्रैकिंग): अगर CPI बढ़ रहा है, तो महंगाई बढ़ रही है। यह बताता है कि पैसे की वैल्यू घट रही है (खरीदने की क्षमता कम हो रही है)। सरकार इससे देखकर ब्याज दरें बढ़ा सकती है या सब्सिडी दे सकती है।
  • वेतन और पेंशन समायोजित करने में: कंपनियां और सरकार CPI के आधार पर वेतन बढ़ाती हैं ताकि लोग महंगाई से निपट सकें। जैसे, महंगाई भत्ता (DA) CPI पर आधारित होता है।
  • आर्थिक नीतियां बनाने में: अगर CPI ज्यादा बढ़ रहा है (उच्च मुद्रास्फीति), तो अर्थव्यवस्था गर्म हो रही है – मतलब मांग सप्लाई से ज्यादा है। अगर कम है (डिफ्लेशन), तो अर्थव्यवस्था धीमी है। केंद्रीय बैंक जैसे RBI इससे देखकर मौद्रिक नीति बनाते हैं।
  • निवेश निर्णयों में: निवेशक CPI देखकर तय करते हैं कि कहां निवेश करें। उच्च CPI में सोना या प्रॉपर्टी अच्छा होता है।
  • नीति-निर्माण: सरकारें और केंद्रीय बैंक CPI का उपयोग अपनी आर्थिक नीतियों, जैसे मौद्रिक नीति (monetary policy) और राजकोषीय नीति (fiscal policy) को तय करने के लिए करते हैं।
  • क्रय शक्ति का निर्धारण: यह बताता है कि लोगों की क्रय शक्ति समय के साथ कैसे बदल रही है। जब महंगाई बढ़ती है, तो लोगों की वास्तविक आय (real income) कम हो जाती है।
  • आम इंसान CPI देखकर यह समझ जाता है कि उसकी आमदनी के मुकाबले जीवन की लागत कितनी बढ़ रही है और उसे बचत या खर्च करने का तरीका बदलना है या नहीं

CPI एक प्रकार का थर्मामीटर है जो बताता है कि अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें कितनी गर्म या ठंडी हैं, जिससे हमें महंगाई और लोगों की आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगता है।

क्यों ज़रूरी है CPI?

  • सरकार को पता चलता है कि लोगों की ज़िंदगी पर मंहगाई का कितना असर हो रहा है।
  • नीति बनाने में मदद मिलती है — जैसे सब्सिडी देना, टैक्स कम करना आदि।
  • निवेशक और बिज़नेस भी CPI देखकर अपने फैसले लेते हैं।

एकदम सरल उदाहरण –

अगर पिछले साल दूध ₹50 लीटर था और आज ₹54 लीटर है, तो दूध की कीमत 8% बढ़ गई. ऐसे ही बाकी चीज़ों को जोड़कर CPI बनाया जाता है, जिससे एक औसत निकलता है और पूरी महंगाई का अंदाजा होता है

Fiscal Deficit ( राजकोषीय घाटा )क्या होता है और राष्ट्रीय बैंक और सरकारें इस पर क्यों ज्यादा ध्यान देती हैं?

जब सरकार का खर्च उसकी आय से ज्यादा हो जाता है, यानी सरकार जितना कमाती है (टैक्स और दूसरे साधन) उससे ज्यादा खर्च करती है—तो जो अंतर होता है, उसे फिस्कल डेफिसिट कहते हैं.

जब सरकार अपनी कमाई से ज़्यादा खर्च करती है, तो उस अंतर को राजकोषीय घाटा कहते हैं।
  • सरकार की कमाई = टैक्स, सरकारी कंपनियों से आय, आदि
  • सरकार का खर्च = सड़कें बनाना, स्कूल चलाना, सेना का खर्च, योजनाएं आदि

उदाहरण: अगर सरकार की कमाई ₹100 है और खर्च ₹120 है, तो ₹20 का घाटा हुआ — यही राजकोषीय घाटा है।

आसान भाषा में समझना

  • जैसे घर का बजट सोचो—अगर महीने की कमाई 8,000 रुपये है लेकिन खर्च 10,000 रुपये है, तो 2,000 रुपये का घाटा हो गया।

इस फर्क को पूरा करने के लिए सरकार उधार (लोन) लेती है ,बॉन्ड बेच कर या इंटरनेशनल बैंक से कर्जा लेती है |

सरकार यह घाटा पूरा कैसे करती है?

जब सरकार को ज़्यादा खर्च करना होता है, तो वो ये घाटा पूरा करने के लिए बाजार से कर्ज लेती है, जैसे बॉन्ड बेचकर या बैंक से उधार लेकर। यह पैसा सरकार विकास कार्यों में लगाती है, जैसे अस्पताल बनाना या बेरोजगारी भत्ता देना। लेकिन अगर घाटा ज्यादा बढ़ जाए, तो सरकार को ज्यादा कर्ज चुकाना पड़ता है, जिससे ब्याज का बोझ बढ़ता है।

सरल भाषा में: घाटा एक तरह का ‘क्रेडिट कार्ड’ जैसा है – आज खर्च करो, कल चुकाओ।

राष्ट्रीय बैंक (जैसे RBI) और सरकार इस पर ध्यान क्यों देती हैं?

राष्ट्रीय बैंक (जैसे मे RBI – Reserve Bank of India) और सरकारें इस पर ध्यान देती हैं क्योंकि:

  • ज्यादा घाटा हुआ तो सरकार को कर्जा ज्यादा लेना पड़ता है, जिससे देश का कुल कर्ज बढ़ जाता है।
  • इसका असर महंगाई पर भी पड़ सकता है—अगर सरकार ज्यादा पैसा खर्च करती है तो बाजार में पैसे ज्यादा आ जाते हैं, जिससे चीजों के भाव बढ़ सकते हैं.
  • ज्यादा घाटा से विदेशी निवेशक डर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लगेगा कि देश की आर्थिक स्थिति कमजोर है।
  • बैंक (जैसे RBI) ये देखता है कि सरकार उधार लेकर आर्थिक ग्रोथ पर खर्च कर रही है या सिर्फ पेंशन/सुब्सिडी में उधार ले रही है। ग्रोथ वाला खर्च अच्छा, लेकिन सिर्फ उधारी के सहारे चलना ठीक नहीं.
  • मुद्रा (currency) की कीमत गिर सकती है।
  • नीति बनाने में मदद: बैंक और सरकार घाटे को देखकर ब्याज दरें तय करती हैं या टैक्स नीतियां बदलती हैं। उदाहरण: RBI घाटे को देखकर मुद्रा नीति बनाता है ताकि अर्थव्यवस्था संतुलित रहे।,इसकी एक सीमा तय होती हैं (जैसे भारत में FRBM कानून के तहत घाटे को GDP के 3% तक रखने का लक्ष्य) ताकि देश की क्रेडिट रेटिंग अच्छी रहे और कर्ज आसानी से मिले।

यह देश की अर्थव्यवस्था में कैसे मदद करता है?

राजकोषीय घाटा हमेशा बुरा नहीं होता; यह अर्थव्यवस्था की मदद भी करता है

अच्छा फिस्कल डेफिसिट तब होता है जब सरकार उधार लेकर देश के लिए स्कूल, अस्पताल, सड़क जैसी चीजें बनाती है। इससे:

  • इससे रोजगार बढ़ता है
  • इससे देश में उत्पादन और व्यापार बढ़ता है
  • सरकार का ज़्यादा खर्च नौकरियाँ पैदा करता है
  • बाज़ार में पैसा आता है, जिससे व्यापार बढ़ता है।
  • GDP बढ़ती है, यानी देश की आर्थिक ताकत बढ़ती है।
  • इससे लोगों की भलाई और देश की ताकत बढ़ती है
  • संकट में सहारा -अगर अर्थव्यवस्था सुस्त है, तो घाटा सरकार को ‘पंप प्राइमिंग’ करने देता है – मतलब, पैसा डालकर इंजन चालू करना
लेकिन घाटा बहुत बढ़ गया तो देश पर कर्ज का बोझ बढ़ता जाता है—फिर ब्याज चुकाना ही मुश्किल हो सकता है, जो कि ठीक नहीं 

इसको निकलते कैसे है –

फिस्कल डेफिसिट = कुल खर्च – (कुल आय, उधार को छोड़कर)

इसे जीडीपी के प्रतिशत के रूप में बताते हैं—जैसे “इस साल भारत का फिस्कल डेफिसिट 5% है” मतलब जीडीपी का 5% सरकार घाटे में खर्च कर रही है।

सरकार घाटा कम करने के लिए कौन‑कौन से कदम लेती है –

  • कर सुधार: टैक्स चोरी रोकना, टैक्स सिस्टम को आसान बनाना, बेस बढ़ाना, और डिजिटलाइजेशन लाना ताकि ज्यादा लोग टैक्स दें और सरकार की आय बढ़े.
  • सरकारी खर्च में कटौती: गैर-जरूरी सब्सिडी, फालतू योजनाओं या प्रशासनिक खर्च को कम करना; फालतू मुफ्त देने पर रोक लगाना.
  • राजस्व बढ़ाना: सरकारी कंपनियों की बिक्री (निजीकरण), नई टैक्स योजनाएँ लाना, और सार्वजनिक संसाधनों का बेहतर उपयोग करना.
  • छूट और सब्सिडी को तर्कसंगत बनाना: मौजूदा छूटों/सब्सिडी को ऐसे डिज़ाइन करना कि सिर्फ ज़रूरतमंद को मिले और अनावश्यक बोझ बजट पर न पड़े.
  • आर्थिक विकास को तेज़ करना: निवेश बढ़ाकर, इंफ्रास्ट्रक्चर और उद्योगों को बढ़ावा देना जिससे ज्यादा रोजगार और व्यापार पैदा हो ताकि आगे चलकर सरकार का टैक्स कलेक्शन भी बढ़ जाए.
  • उधारी सावधानी से लेना: सरकार उधारी या बॉन्ड इश्यू करते वक्त ध्यान रखती है कि ब्याज का बोझ काबू में रहे। साथ ही, ज्यादा बाहरी कर्ज से बचती है ताकि विदेशी दबाव न हो.
  • कैपेक्स (पूंजीगत व्यय) को प्राथमिकता देना: ऐसा खर्च जिससे लंबे वक्त में सरकार को फायदा मिले—जैसे सड़कें, रेलवे, बिजली आदि पर खर्च ज्यादा फायदेमंद है क्योंकि इससे आगे जाकर आय बढ़ती है.

Leverage (लेवरेज) क्या होता है और ये कैसे काम करता है?

किसी चीज़ (जैसे पैसा या संसाधन) का “सहारा लेकर ज़्यादा फायदा उठाना” या “लाभ को बढ़ाना”। आसान भाषा में, जब कोई अपने पास लिमिटेड पैसा हो, और बाकी पैसा उधार लेकर कोई बड़ा काम करता है, तो उसे leverage कहते हैं या जब आप अपने पास कम पैसे होते हुए भी किसी से उधार लेकर या किसी सुविधा का इस्तेमाल करके ज़्यादा निवेश करते हैं, तो उसे लेवरेज कहते हैं।

Leverage आसान शब्दों में –

  • Leverage का सीधा अर्थ है “लाभ उठाना” या “सहारा लेना”
  • फाइनेंस में, leverage का मतलब है—कम पैसे और बाकी उधार पैसे लगाकर ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की कोशिश करना।

Leverage कैसे काम करता है –

सरल उदाहरण से समझे :-

मान लीजिए राम के पास ₹1,000 हैं ,उसे एक ऐसा मोबाइल दिखा जिसकी कीमत ₹5,000 है और वो जानता है कि कुछ दिनों में उसकी कीमत ₹6,000 हो जाएगी।

राम अपने दोस्त श्याम से ₹4,000 उधार लेता है और मोबाइल खरीद लेता है।

कुछ दिन बाद राम उस मोबाइल को ₹6,000 में बेच देता है।

  • कुल कमाई = ₹6,000
  • कुल खर्च = ₹5,000
  • मुनाफा = ₹1,000

राम ने सिर्फ ₹1,000 लगाए थे, लेकिन ₹1,000 का मुनाफा कमाया — यानी 100% रिटर्न। ये हुआ ₹5,000 लेवरेज का कमाल

Leverage के नुकसान: –

  • जोखिम बढ़ जाता है: जितना मुनाफा बढ़ सकता है, उतना ही नुकसान भी बहुत तेजी से बढ़ सकता है, क्योंकि नुकसान होने पर उधारी चुकानी ही पड़ती है।
  • ब्याज और दबाव: उधारी वाले पैसे पर ब्याज देना होता है, जिससे दबाव बढ़ जाता है अगर मुनाफा कम हुआ तो भी ब्याज तो देना ही पड़ेगा।
  • आर्थिक संकट का खतरा: अगर व्यापार या निवेश में उम्मीद अनुसार लाभ नहीं हुआ, तो कर्ज चुकाने में बहुत कठिनाई हो सकती है और आर्थिक हालत भी खराब हो सकती है।
  • मानसिक दबाव बढ़ता है: उधार की वजह से तनाव और चिंता बढ़ सकती है।
  • कंपनी दिवालिया हो सकती है: अगर लेवरेज ज़्यादा हो और बिज़नेस न चले, तो कंपनी बंद भी हो सकती है।

Leverage के फायदे :-

  • कम पूंजी में बड़ा लाभ: लिवरेज से कम पैसों में ज्यादा निवेश या व्यापार किया जा सकता है, जिससे मुनाफा बढ़ सकता है।
  • विकास के नए मौके: इसके सहारे कंपनी या व्यक्ति नए मौके और बड़े मौके पकड़ सकता है, जो अपने पैसों से शायद संभव न हो।
  • कर (टैक्स) में छूट: जो पैसा उधार लिया जाता है, उस पर जो ब्याज जाता है, उसमें अक्सर टैक्स छूट भी मिल सकती है।
  • मुनाफा बढ़ाने का मौका: अगर सौदा सफल रहा, तो आपका मुनाफा कई गुना हो सकता है।
  • बिज़नेस में ग्रोथ जल्दी होती है: कंपनियाँ उधार लेकर जल्दी विस्तार कर सकती हैं।
  • संसाधनों का बेहतर उपयोग: कम संसाधनों से ज़्यादा काम निकलवाया जा सकता है।

एक लाइन में समझो:

लेवरेज एक तेज़ रफ्तार गाड़ी की तरह है — सही तरीके से चलाओ तो जल्दी मंज़िल मिलेगी, लेकिन गलती हुई तो बड़ा एक्सीडेंट भी हो सकता है।

माइक्रो(Microeconomy) इकॉनमी क्या है और ये किसी भी देश के लिए क्यों जरुरी ?

 मैक्रोइकॉनोमय या मिक्रोइकॉनॉमिक्स का मतलब होता है एक छोटे स्तर पर अर्थव्यवस्था का अध्ययन, जिसमे हम एक व्यक़्ति, घर का परिवर, या छोटी बिज़नेस की आर्थिक फैसले और व्यवहार को समझते है। ये अर्थशास्त्र की वह शाखा है जो व्यक्तिगत इकाइयों जैसे एक उपभोक्ता, एक उत्पादक से संबंधित आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करती है। माइक्रोइकॉनॉमिक्स विशिष्ट बाज़ारों, क्षेत्रों या उद्योगों के विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करता है।

माइक्रो इकॉनमी छोटे स्तर मेंअर्थव्यवस्था का अध्ययन किया जाता है

जैसे:

  • एक दुकान वाला क्या बेचता है और कितने में बेचता है
  • ग्राहक क्या खरीदते हैं और क्यों खरीदते हैं
  • एक फैक्ट्री कितना माल बनाती है और कितनी लागत लगती है

यानि ये उस छोटे-छोटे फैसलों को समझता है जो लोग, दुकानदार, कंपनियाँ रोज़ाना लेते हैं।

आसान उदाहरण से समझो:-

मान लो आपके गाँव में एक चाय की दुकान है।

  • अगर चाय ₹10 की है और लोग ज़्यादा खरीदते हैं, तो दुकानदार खुश होता है।
  • अगर चाय ₹20 की हो जाए और लोग कम खरीदें, तो दुकानदार को नुकसान हो सकता है।

अब ये जो चाय की कीमत, ग्राहक की पसंद, और दुकानदार का फैसला है — ये सब माइक्रोइकोनॉमिक्स के अंदर आता है।

ये किसी देश के लिए क्यों ज़रूरी है?

इक्रोइकोनॉमिक्स से हमें ये समझ आता है कि:

  • लोग क्या खरीदना पसंद करते हैं
  • कंपनियाँ कैसे काम करती हैं
  • सरकार टैक्स या सब्सिडी कैसे दे ताकि लोगों को फायदा हो

इससे देश की नीतियाँ बनती हैं — जैसे:

  • गरीबों को सस्ती चीज़ें कैसे मिलें
  • किसानों को सही दाम कैसे मिले
  • बेरोजगारी कैसे कम हो

यानि देश की तरक्की के लिए ये बहुत ज़रूरी है।

माइक्रोइकोनॉमिक्स के आसान उदाहरण –

1. सब्ज़ी मंडी का भाव

  • अगर टमाटर की फसल ज़्यादा हो गई, तो मंडी में टमाटर सस्ते हो जाते हैं।
  • अगर बारिश से फसल खराब हो गई, तो टमाटर महंगे हो जाते हैं।

ये मांग और आपूर्ति का खेल है — माइक्रोइकोनॉमिक्स यही समझाता है कि कीमतें कैसे तय होती हैं।

2. दूध बेचने वाला किसान

  • एक किसान सोचता है कि वो दूध ₹50 लीटर बेचे या ₹60 लीटर।
  • वो देखता है कि ग्राहक कितने पैसे देने को तैयार हैं और कितना मुनाफा उसे मिलेगा।

ये लाभ अधिकतमकरण (Profit Maximization) का उदाहरण है।

3. मोबाइल खरीदने का फैसला

  • आप सोचते हैं कि ₹10,000 वाला मोबाइल लें या ₹15,000 वाला।
  • आप अपनी ज़रूरत, बजट और पसंद के हिसाब से फैसला लेते हैं।

ये उपयोगिता अधिकतमकरण (Utility Maximization) कहलाता है — यानि जो चीज़ आपको सबसे ज़्यादा फायदा दे।

4. एक दुकान की बिक्री

  • दुकान वाला देखता है कि कौन-सी चीज़ ज़्यादा बिक रही है — नमकीन, बिस्किट या साबुन।
  • वो उसी चीज़ का ज़्यादा स्टॉक मंगवाता है और बाकी कम करता है।

ये उपभोक्ता व्यवहार (Consumer Behavior) का हिस्सा है।

सरकारी सब्सिडी का असर

  • सरकार कहती है कि गैस सिलेंडर पर ₹200 की सब्सिडी मिलेगी।
  • इससे गरीब लोग ज़्यादा गैस सिलेंडर खरीदते हैं।

ये दिखाता है कि सरकार के फैसले से लोगों का व्यवहार कैसे बदलता है — माइक्रोइकोनॉमिक्स इसे भी समझता है।

माइक्रोइकोनॉमिक्स को समझने के पैमाने:-

1. मांग (Demand)

2. आपूर्ति (Supply)

3. कीमत (Price)

4. उपयोगिता (Utility)

5. लाभ (Profit)

6. उत्पादन लागत (Cost of Production)

7. बाजार संरचना (Market Structure)

8. सरकारी नीतियाँ (Government Policies )

पूंजीगत व्यय या कैपेक्स क्या है ,सरकार क्यों कैपेक्स बढ़ाते है ?

Capex का मतलब है “Capital Expenditure” यानी पूंजीगत खर्चा। ये वो पैसा होता है जो कोई कंपनी, सरकार या कोई संस्था अपने लंबे समय तक चलने वाले assets (जैसे मशीन, फैक्ट्री, बिल्डिंग, सड़क, या टेक्नोलॉजी) को खरीदने या सुधारने में खर्च करती है।

सरकार और देश के लिए Capex बहुत जरूरी होता है क्योंकि यही खर्चा नई इन्फ्रास्ट्रक्चर (जैसे सड़क, अस्पताल, बिजली, ट्रेन लाइन) बनाने, उद्योगों को बढ़ाने, और देश की आर्थिक ताकत बढ़ाने में काम आता है। जब सरकार या कंपनी Capex बढ़ाती है, तो इससे नए काम पैदा होते हैं, लोग रोजगार पाते हैं, और देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होती है।

सरल भाषा में समझें तो, जैसे घर बनाने के लिए ज़मीन खरीदना, ईंट- पत्थर लगाना और मजबूत छत बनाना है तो उसके लिए पैसे खर्च करना पड़ता है , वैसे ही देश को और कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर खर्चा यानी Capex करना पड़ता है।

उदाहरण: अगर सरकार नए हायवे बनाती है या फैक्ट्री खोलती है, तो ये Capex होता है जो भविष्य में देश की प्रगति में मदद करता है। यह खर्चा आमतौर पर लंबे समय तक फायदा देने वाला होता है,

देश की अर्थव्यवस्था पर Capex का असर –

नए रोजगार बनना

जब सरकार या कंपनियां Capex करती हैं, जैसे नई फैक्ट्री, सड़क, या बिजली पावर प्लांट बनाना, तो वहां काम के लिए मजदूर, इंजीनियर, टेक्नीशियन आदि की जरूरत होती है। इससे रोजगार बढ़ते हैं और लोग पैसे कमाने लगते हैं, जिससे उनकी खरीदारी बढ़ती है |

उत्पादन और व्यापार बढ़ता है

Capex से ज्यादा कारखाने, मशीनरी, और संसाधन उपलब्ध होते हैं, जिससे उत्पादन बढ़ता है। उत्पादन बढ़ने का मतलब है कि देश में ज्यादा सामान बनेंगे, जिन्हें बेचकर देश की आय बढ़ेगी |

आर्थिक विकास तेज़ होता है

जब Capex बढ़ता है, तो देश की इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर होती है जैसे सड़क, रेलवे, बिजली। इससे व्यापार करना आसान होता है, सामान जल्दी और सस्ते में मिलता है, और निवेश भी बढ़ता है। इससे GDP यानी देश की कुल आर्थिक क्रियाकलाप बढ़ते हैं,Capex करने से देश की आर्थिक ताकत बढ़ती है क्योंकि ये लंबे समय तक चलने वाले संसाधन बनाते हैं जो भविष्य में ज्यादा उत्पादन और सेवाएं देंगे। इस तरह से देश की स्थिर और दीर्घकालिक वृद्धि होती है |

सरकार Capex (पूंजीगत व्यय) को बढ़ाने के लिए तय करती है कि GDP का कितना हिस्सा Capex पर खर्च किया जाएगा |

कुछ Capex बढ़ाने के तरीके –

  1. बजट में आवंटन बढ़ाना: सरकार हर साल अपना बजट बनाती है जिसमें तय करती है कि कुल खर्च में से कितना पैसा Capex पर खर्च होगा। उदाहरण के लिए, भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2022-23 में Capex को 7.5 लाख करोड़ रुपये (लगभग 2.9% GDP) तक बढ़ाया था ताकि इंफ्रास्ट्रक्चर और आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया जा सके.
  2. प्राथमिकता तय करना: सरकार विभिन्न क्षेत्रों जैसे सड़क, रेलवे, शहरी विकास, बंदरगाह, और नागरिक उड्डयन में कितना निवेश करना है, यह तय करती है। पिछले समय में सड़क और रेलवे पर अधिक खर्च होता था, लेकिन अब सरकार शहरी बुनियादी ढांचे और एयरलाइंस जैसे नए सेक्टर्स पर भी ध्यान दे रही है.
  3. नीतिगत निर्णय: सरकार Capex बढ़ाने के लिए नई नीतियां बनाती है, जैसे प्राइवेट सेक्टर को निवेश के लिए प्रेरित करना, सप्लाई चेन की समस्याओं को हल करना, और सरकारी खरीद के नियमों में सुधार करना ताकि निवेश प्रक्रिया सुगम हो सके.
  4. पिछले वर्षों का विश्लेषण: सरकार पिछले सालों की आर्थिक स्थिति और विकास की रफ्तार को देखकर Capex का लक्ष्य निर्धारित करती है ताकि अर्थव्यवस्था को बेहतर बढ़ावा मिल सके।

GDP का कितना हिस्सा Capex के लिए खर्च होता है?

देश की सरकारें यह तय करती है कि GDP का कितना हिस्सा Capex पर खर्च किया जाए। उदाहरण के लिए, भारत ने FY 2022-23 में लगभग 2.9% GDP को Capex के लिए रखा और वही FY 2025-2026के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संघीय बजट में पूंजी व्यय लक्ष्य को 10.08% बढ़ाकर 11.21 लाख करोड़ रुपये करने का प्रस्ताव दिया है। यह प्रतिशत देश की आर्थिक जरूरतों और विकास लक्ष्यों के हिसाब से बदलता रहता है |

सरल शब्दों में: – सरकार देश की जरूरत, पैसे की उपलब्धता, और आर्थिक संतुलन का ध्यान रख कर तय करती है कि GDP का कितना हिस्सा कैपेक्स में लगाया जाए ताकि देश की समृद्धि बढ़े।

सरकार का उद्देश्य यह होता है कि Capex बढ़ाने से आर्थिक विकास तेज हो, रोजगार बढ़े, और देश की आधारभूत संरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) बेहतर बने, जिससे भविष्य में देश की उत्पादन क्षमता मजबूत हो |

प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income) क्या है? 

प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income) का मतलब है किसी भी देश या क्षेत्र में हर एक व्यक्ति की औसत आय कितनी है। इसे बहुत ही सरल भाषा में समझें तो, यह बताता है कि अगर किसी देश की कुल कमाई को वहां के सभी लोगों में बराबर बांट दिया जाए, तो हर व्यक्ति के हिस्से में कितनी आय आएगी।

प्रति व्यक्ति आय विभिन्न देशों के अलग-अलग जीवन स्तर का एक महत्वपूर्ण सूचकांक होती है। यह मानव विकास सूचकांक में सम्मिलित तीन संख्याओं में से एक है। अनौपचारिक बोलचाल में प्रति व्यक्ति आय को औसत आय भी कहा जाता है, और आमतौर पर अगर एक राष्ट्र की औसत आय किसी दूसरे राष्ट्र से अधिक हो, तो पहला राष्ट्र दूसरे से अधिक समृद्ध और सम्पन्न माना जाता है।

कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ वार्षिक रूप से विश्वभर के देशों की प्रति व्यक्ति आय की सूचियाँ बनाती हैं।

यह सूचियाँ दो आधारों पर बनाई जाती हैं –

  • अभारित सूची (Nominal) – यह सरल सूचियाँ सीधे कमाई जाने वाली मुद्रा में आय को लेकर अभारित रूप से (यानि बिना किसी फेर-बदल के) बनाई जाती है और अधिकतर इन्हीं सूचियों का प्रयोग होता है।
  • क्रय-शक्ति समता पर आधारित सूची (PPP) – यह सूचिया क्रय-शक्ति समता के आधार पर बनती हैं और इनसे यह अंदाज़ा लगाया जाता है कि किसी क्षेत्र में लोग अपनी आय से कितना खरीद सकते हैं, जो भिन्न माल और सेवाओं की स्थानीय कीमतों पर निर्भर करता है।

कैसे निकालते हैं प्रति व्यक्ति आय –

जीडीपी प्रति व्यक्ति आय को नॉमिनल जीडीपी को देश की जनसंख्या से भाग देकर निकाला जाता है। इससे तय होता है कि देश में प्रति व्यक्ति औसत आय कितनी है। जब किसी वर्ष की जीडीपी की गणना की जाती है ,उसी वर्ष के मध्य की जनसंख्या का आंकड़ा भाग करने के लिए उपयोग किया जाता है।

  • प्रति व्यक्ति आय = कुल राष्ट्रीय आय ÷ कुल जनसंख्या
  • उदाहरण: अगर किसी देश की कुल सालाना आय 80 लाख रुपये है और वहां 10 लोग रहते हैं, तो प्रति व्यक्ति आय होगी 80,00,000 ÷ 10 = 800,000 रुपये।

इसका क्या महत्व है –

  • यह किसी देश या क्षेत्र के लोगों की औसत आर्थिक स्थिति को दिखाता है।
  • इससे पता चलता है कि उस देश के लोगों का जीवन स्तर (standard of living) कितना अच्छा और ख़राब है।
  • इसका उपयोग देशों या राज्यों की तुलना करने या वहाँ की आर्थिक प्रगति समझने के लिए भी किया जाता है |

आसान भाषा में समझिए –

  • “प्रति व्यक्ति” यानी “हर व्यक्ति के लिए”,
  • “आय” यानी “कमाई”।
  • जैसे स्कूल में टीचर 100 टॉफियाँ 20 बच्चों में बराबर बांट दे, तो हर बच्चे को 5 टॉफियाँ मिलती हैं। ठीक वैसे ही, देश की कुल कमाई जितने लोग हैं, उनके बीच बांट दी जाती है, तो प्रति व्यक्ति आय पता चलती है।

मुख्य बातें –

  • यह औसत आय है, सभी लोगों की कमाई एक जैसी नहीं होती, पर यह एक साधारण माप है।
  • देश की वास्तविक खुशहाली के लिए सिर्फ यह आंकड़ा काफी नहीं है, मगर तुलनात्मक और योजनाबद्ध सोच के लिए यह आसान और जरूरी तरीका है।

GST Reforms से इकॉनमी पे क्या असर पड़ेगा ?

GST सुधारों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, खासकर उपभोक्ता खर्च (consumption) को बढ़ावा देने में। नए GST सुधारों के तहत टैक्स स्लैब्स को सरल बनाकर और जरूरी वस्तुओं पर टैक्स दरें कम करके उपभोक्ताओं की जेब पर बोझ कम किया जाएगा, जिससे उनकी क्रय क्षमता बढ़ेगी। इससे आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी और GDP वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा।

इसके साथ ही व्यवसायों के लिए भी चीजें आसान बनाने की कोशिश है. 5% और 18% की नई टैक्स स्लैब्स साथ-साथ हानिकारक और लग्जरी वस्तुओं के लिए 40% की दर वाला यह नया टैक्स स्ट्रक्चर उपभोक्ता खर्च और आर्थिक विकास को बढ़ाने के अलावा मिडिल क्लास और एमएसएमई को राहत प्रदान करने के लिए डिजाइन किया गया है |

जीडीपी पर क्या असर पड़ेगा

  • उपभोक्ता खर्च (Consumption): रोजमर्रा की वस्तुओं, पैकेज्ड फूड आइटम्स और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स सहित अलग-अलग प्रकार की वस्तुओं पर जीएसटी दरें कम करने से उपभोक्ताओं के लिए कीमतें सीधे तौर पर कम हो जाएंगी, जो खर्च और मांग को बढ़ावा देंगी , भारत की GDP में उपभोक्ता खर्च लगभग 60% होता है, इसलिए यह सुधार सीधे GDP को 0.3% से 0.7% (30-70 बेसिस प्वाइंट) तक बढ़ा सकता है।
  • औपचारिक अर्थव्यवस्था (Formal Economy): टैक्स स्लैब simplification और बेहतर प्रशासन से अधिक व्यवसाय GST के दायरे में आएंगे, जिससे औपचारिक अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा।
  • आसान टैक्स स्ट्रक्चर : ज्यादातर वस्तुओं और सर्विसेज के लिए चार स्लैब से दो स्लैब फ्रेमवर्क (5% और 18%) में बदलाव से प्रोसेस आसान होने और भारत में व्यापार करने में आसानी में सुधार होने की उम्मीद है.सुधारों के कारण कर ( Tax )अनुपालन आसान और कम महंगा होगा, जिससे इनका विकास बढ़ेगा।
  • सरकारी राजस्व और वित्तीय स्थिति (Revenue and Fiscal Health):
  • शुरुआती चरण में कुछ राजस्व में कमी हो सकती है, लेकिन दीर्घकाल में कर संग्रह में वृद्धि की उम्मीद है। GST के दो-स्तरीय सुधार से सरकार के राजस्व घाटे की संभावना है, खासकर केंद्र सरकार के लिए। हाल की रिपोर्ट्स और विश्लेषणों के अनुसार, GST की दरों में कटौती के कारण भारत सरकार को सालाना कम से कम 3,700 करोड़ रुपये से लेकर 48,000 करोड़ रुपये तक का राजस्व घाटा हो सकता है। कुछ विश्लेषणों में यह घाटा 10,000 करोड़ से ऊपर भी अनुमानित है इससे सरकार का वित्तीय घाटा थोड़ा प्रभावित हो सकता है, लेकिन सुधार स्थायी और प्रगतिशील होंगे।

संक्षेप में –

  • GST सुधार उपभोक्ता खर्च को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे, जिससे अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी।
  • छोटे व्यवसाय और औपचारिक क्षेत्र को लाभ मिलेगा।
  • सरकार को राजस्व का कुछ हिस्सा कम मिलेगा लेकिन कुल मिलाकर आर्थिक वृद्धि बढ़ेगी।

कब लागू होंगी gst की नई दरें : नई जीएसटी दरें 22 सितंबर, 2025 से प्रभावी होंगी.

सेक्टर्स को फायदा 

खाद्य और घरेलू वस्तुएं:
रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं जैसे साबुन, टूथपेस्ट, ब्रेड, पैकेज्ड फूड आदि पर GST दर 5% हो जाएगी, जिससे उपभोक्ताओं को रियायत मिलेगी और इन वस्तुओं की मांग बढ़ेगी।

इलेक्ट्रॉनिक्स और उपभोक्ता वस्तुएं:
टीवी, एयर कंडीशनर, डिशवॉशर, छोटे घरेलू उपकरणों पर GST 18% से कम होकर अधिक वहनीय होगी। इससे इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण और बिक्री में बढ़ोतरी होगी।

गृह निर्माण और निर्माण सामग्री:सीमेंट और अन्य निर्माण सामग्री पर GST दर कम होने से हाउसिंग सेक्टर को मजबूती मिलेगी, निर्माण की लागत घटेगी और नया निवेश बढ़ेगा।
ऑटोमोबाइल सेक्टर:
वाहन और ऑटो पार्ट्स के लिए स्पष्ट कर वर्गीकरण और टैक्स दरों में बदलाव से विनिर्माण और निर्यात को बढ़ावा मिलेगा।
कृषि और स्वास्थ्य:
कृषि आधारित उत्पादों और स्वास्थ्य सेवाओं पर टैक्स में छूट और सुधार से ये सेक्टर्स और भी प्रतिस्पर्धी बनेंगे।
एमएसएमई और स्टार्टअप:
अनुपालन और टैक्स भरने में आसानी आने से छोटे व्यवसायों और स्टार्टअप्स को लाभ होगा, जिससे उनकी आर्थिक गतिविधि बढ़ेगी।

GST सुधारों से आम जनता को सीधे क्या लाभ होंगे ?

लघु उद्योग भारती (एलयूबी) संगठन ने जीएसटी परिषद की अनुमोदित नई सरलीकृत कर संरचना का स्वागत किया है। संगठन ने कहा कि 22 सितंबर से लागू होने वाले 5 प्रतिशत और 18 प्रतिशत के दो-स्तरीय जीएसटी स्लैब भारत की अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में ऐतिहासिक और परिवर्तनकारी बदलाव साबित होंगे।

गुड्स एंड सर्विस टैक्स (GST) में नए सुधारों से आम लोगों की जेब को बड़ी राहत मिलेगी. 3 सितंबर को 56वीं GST काउंसिल की बैठक में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अध्यक्षता में नया टैक्स स्ट्रक्चर मंजूर किया गया. अब केवल दो मुख्य स्लैब – 5% और 18% – होंगे. साथ ही हानिकारक सामानों पर 40% का विशेष टैक्स लगेगा.

उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़ेगी: टैक्स स्लैब को दो में सीमित करने और सुधार से उपभोक्ता वस्तुएं सस्ती होंगी, जिससे खरीद क्षमता बढ़ेगी।

कीमतों में कमी से राहत: जीएसटी दरों को कई आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर कम कर दिया गया है, जिससे खाद्य सामग्री, स्वास्थ्य सेवाएं, सीमेंट, कृषि उपकरण आदि सस्ते होंगे और आम आदमी की दैनिक जरूरतों पर खर्च कम होगा।

रोज़गार और आर्थिक विकास में योगदान: सस्ती वस्तुओं की अधिक मांग से उद्योगों को उत्पादन बढ़ाने का प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।

स्वास्थ्य सेवाओं की सस्ती उपलब्धता: जीवन रक्षक दवाओं और स्वास्थ्य बीमा पर जीएसटी हटने से स्वास्थ्य संबंधी खर्च कम होंगे।

कृषि व छोटे उद्योगों को लाभ: खेती से जुड़े उपकरण और छोटे उद्योगों पर टैक्स कटौती से किसान और छोटे कारोबारियों को राहत मिलेगी।

डेयरी किसानों को होगा फायदा

सरकार ने खेती में इस्तेमाल होने वाली चीजों और डेयरी उत्पादों पर जीएसटी की दरें कम कर दी हैं। इससे किसानों को बहुत मदद मिलेगी। कंपाउंड लाइवस्टॉक फीड मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (CLFMA) के अध्यक्ष दिव्या कुमार गुलाटी ने डेयरी प्रोडक्ट पर टैक्स कम करने को प्रगतिशील कदम बताया। उन्होंने कहा कि इससे भारत के 8 करोड़ डेयरी किसानों को फायदा होगा।