Basis Point (BPS) क्या है ,कैसे काम करता है ?

Question about basis points explained.
बेसिस पॉइंट (Basis Point) यानी बीपीएस (BPS) एक खास यूनिट है, जो फाइनेंस में ब्याज दर या रिटर्न जैसे प्रतिशत में होने वाले छोटे बदलाव को साफ-साफ समझाने के लिए इस्तेमाल की जाती है।

बेस पॉइंट्स (BPS), जिसे हम ‘बिप्प्स’ भी कहते हैं, एक बहुत ही आसान तरीका है छोटे-छोटे बदलावों को मापने का, खासकर जब बात प्रतिशत (percentage) की हो।

जब हम बहुत छोटी संख्याओं या बदलावों के बारे में बात करते हैं, तो प्रतिशत का उपयोग करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। जैसे, अगर कोई कहे कि ब्याज दर 0.05% बढ़ गई, तो यह उतना साफ नहीं लगता। लेकिन अगर यही बात हम बेस पॉइंट्स में कहें, तो यह बहुत आसान हो जाता है।

ये एक छोटा प्रतिशत होता है, जो वित्त (finance) की दुनिया में बहुत काम आता है

बेसिस पॉइंट का वैल्यू (Value) क्या है?

1 %प्रतिशत = 100 बेसिस पॉइंट

मतलब, अगर कोई चीज 1% बढ़े, तो वह 100 बेसिस पॉइंट बढ़ी।

1 बेसिस पॉइंट = 0.01 प्रतिशत

यानी, यह प्रतिशत का एक सौवां हिस्सा है।

इसे बीपी, बीपीएस या बिप्स भी कहते हैं

उदाहरण से समझो

मान लो तुम्हारा बैंक लोन का ब्याज 10% है। अगर यह 10.5% हो जाए, तो बढ़ोतरी 0.5% की हुई।

अब, 0.5% को बेसिस पॉइंट में बदलो:

50 बेसिस पॉइंट (क्योंकि 0.01% = 1 BP, तो 0.5% = 50 BP)।

जैसे, “ब्याज 50 बेसिस पॉइंट बढ़ गया” – यह सुनकर तुरंत पता चल जाता है कि आधा प्रतिशत बढ़ा, बिना बड़े नंबरों में उलझे।

इसे कैसे समझें?

बेस पॉइंट्स को एक सिक्के की तरह समझिए। जैसे 100 पैसे मिलकर 1 रुपया बनाते हैं, उसी तरह 100 बेस पॉइंट्स मिलकर 1% बनाते हैं।

अगर कोई कहे कि “ब्याज दर में 50 बेस पॉइंट्स की कटौती हुई”, तो इसका मतलब है कि ब्याज दर में 0.50% की कमी हुई है।

  • 50 बेस पॉइंट्स = 50 * 0.01% = 0.50%

बेसिस पॉइंट कैलकुलेट करने का तरीका-

प्रतिशत बदलाव को 100 से गुणा करो।

  • उदाहरण: अगर ब्याज 9% से 9.75% हो गया, तो बदलाव = 0.75%।
  • अब, 0.75 × 100 = 75 बेसिस पॉइंट बढ़ा।

इस्तेमाल कहाँ होता है?

  • बैंक ब्याज या लोन: अगर RBI कहे कि ब्याज दर 25 बेसिस पॉइंट कम हो गई, तो समझो 0.25% कम हुई – घर का लोन सस्ता हो गया!
  • शेयर बाजार या बॉन्ड: वहाँ की कीमतें बहुत तेज बदलती हैं, तो छोटे बदलाव बताने के लिए BP यूज होता है। जैसे, “शेयर 10 BP गिरा” मतलब 0.1% गिरा।
  • सरकारी नीतियाँ: न्यूज में सुनोगे, “इंटरेस्ट रेट 50 BP बढ़ाया” – यह अर्थव्यवस्था को कंट्रोल करने के लिए होता है।
  • बीमा या निवेश: वहाँ भी जोखिम (रिस्क) मापने के लिए।
  • माइक्रो स्तर के बदलाव को बताने के लिए।
  • बॉन्ड मार्केट में : निवेशक बॉन्ड की कमाई (yield) को बीपीएस में मापते हैं
  • फीस और चार्जेस में: म्यूचुअल फंड या बैंक की फीस को भी बीपीएस में बताया जाता है

क्यों जरूरी है Basis Point?

  • सटीकता: छोटे-छोटे बदलाव को सही तरीके से बताने के लिए
  • भ्रम से बचाव: “1% बढ़ा” कहने से लोग कंफ्यूज़ हो सकते हैं, लेकिन “100 बीपीएस बढ़ा” कहने से साफ हो जाता है
  • सभी को एक जैसी भाषा में समझ आता है — चाहे बैंक वाला हो या निवेशक
  • बहुत छोटे प्रतिशत परिवर्तन (जैसे 0.25% या 0.5%) को जल्दी और साफ-साफ बताने के लिए।
  • निवेश, ब्याज दर के बदलने पर सही कैलकुलेशन और डिस्कशन करने के लिए

Credit Rating क्या होता है ,भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया भर की रेटिंग एजेंसी का आउटलुक

क्रेडिट रेटिंग एक तरह का "स्कोरकार्ड" होता है, जो किसी देश, कंपनी या व्यक्ति को उधार चुकाने की क्षमता के बारे में बताता है। 

अगर आपका रिपोर्ट कार्ड अच्छा है, मतलब आपको अच्छी ग्रेड मिली है, तो इसका मतलब है कि आप अपना उधार समय पर चुकाने की पूरी कोशिश करते हैं और बैंकों को आप पर भरोसा है। अगर रेटिंग खराब है, तो इसका मतलब है कि आपको उधार चुकाने में मुश्किल आ सकती है।सरल शब्दों में, यह बताता है कि क्या आप या आपका देश कर्ज (लोन) समय पर वापस कर पाएंगे या नहीं। यह रेटिंग AAA से लेकर D तक की ग्रेडिंग पर आधारित होती है – AAA सबसे अच्छा (बहुत सुरक्षित) और D सबसे खराब (डिफॉल्ट, यानी कर्ज न चुका पाना)।

 क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां इस काम के लिए स्पेशल कंपनी होती हैं, जैसे भारत में CIBIL, CRISIL, ICRA, CARE आदि ,दुनिया में कुछ बड़ी एजेंसियां हैं जो यह रेटिंग देती हैं:

  • Fitch
  • Moody’s
  • S&P (Standard & Poor’s)

क्रेडिट रेटिंग कैसे काम करती है?

  • जांच-पड़ताल: एजेंसी उस देश या कंपनी के आर्थिक डेटा को देखती है – जैसे GDP (कुल उत्पादन), कर्ज का बोझ, कमाई, सरकारी नीतियां, राजनीतिक स्थिरता आदि। भारत के मामले में, वे बजट, टैक्स कलेक्शन, विदेशी निवेश और महंगाई जैसी चीजें चेक करते हैं।
  • रिस्क का आकलन: वे सोचते हैं – “क्या यह देश कर्ज चुका पाएगा?” अगर अर्थव्यवस्था मजबूत है (जैसे अच्छी ग्रोथ, कम बेरोजगारी), तो ऊंची रेटिंग। अगर मुश्किलें हैं (जैसे ज्यादा कर्ज, युद्ध या महामारी), तो कम रेटिंग।
  • रिपोर्ट जारी: हर कुछ महीनों में वे “आउटलुक” या “रिव्यू” जारी करते हैं – स्टेबल (स्थिर), पॉजिटिव (सकारात्मक, सुधार की उम्मीद) या नेगेटिव (नकारात्मक, खतरा)। रेटिंग बदलने पर (अपग्रेड या डाउनग्रेड) पूरी दुनिया में खबर बन जाती है।
  • देश की आर्थिक स्थिति कैसी है?
  • सरकार कितना कर्ज ले रही है?
  • क्या सरकार समय पर कर्ज चुका रही है?
  • देश में राजनीतिक स्थिरता है या नहीं?
  • विदेशी निवेश कितना आ रहा है?

आउटलुक क्या होता है?

सिर्फ रेटिंग नहीं, “आउटलुक” भी दिया जाता है—तीन तरह के आउटलुक:

Positive (सुधर सकता है),

Stable (जैसा है वैसा रहेगा),

और Negative (गिर सकता है)

इसका इस्तेमाल निवेशक अंदाजा लगाने को करते हैं कि आने वाले समय में उस देश या कंपनी की हालत सुधरेगी या खराब होगी।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया की रेटिंग एजेंसियों का आउटलुक (सितंबर 2025 तक)

भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया भर की रेटिंग एजेंसी का भरोसा बढ़ाता जा रहा है.

जापान की रेटिंग एंड इन्वेस्टमेंट इंफॉर्मेशन (R&I) ने भारत की लॉन्ग टर्म सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड दिया है. ये साल 2025 में भारत को रेटिंग एजेसियों से मिला तीसरा अपग्रेड है. R&I ने क्रेडिट रेटिंग को ट्रिपल B (BBB) से अपग्रेड कर ट्रिपल B प्लस (BBB +) कर दिया है. इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर आउटलुक भी स्टेबल रखा है. इससे पहले इससे पहले S&P और मॉर्निंगस्टार DBRS भी भारत की आर्थिक स्थिति पर भरोसा जता चुके हैं. अगस्त 2025 में  S&P ने रेटिंग को ट्रिपल B माइनस (BBB-) से ट्रिपल B (BBB) और मई में मॉर्निंगस्टार DBRS ने ट्रिपल B Low ( BBB Low) से ट्रिपल B ( BBB) किया है.

क्या है रेटिंग में सुधार का मतलब ?

रेटिंग का मतलब है कि कोई देश अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने में कितना सक्षम है. इससे इन देशों में आर्थिक जोखिमों के स्तर का पता चलता है और इसी आधार पर निवेश या कर्ज का प्रवाह तय होता है. ट्रिपल B आमतौर पर निवेश योग्य रेटिंग मानी जाती है. रेटिंग जितनी अपग्रेड होती है वो देश उतना कम जोखिम वाला और उतना ही ज्यादा निवेश के योग्य माना जाता है ऐसे में कर्ज दरें घटती हैं और विदेशी निवेश बढता है जो आगे अर्थव्यवस्था को और मजबूती देता है

दुनिया की नजर में भारत –

भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है, लेकिन कुछ चुनौतियाँ भी हैं जैसे महंगाई, बेरोज़गारी और फिस्कल घाटा।

रेटिंग एजेंसियां भारत की नीतियों और सुधारों को लगातार देखती हैं।

अगर भारत सुधार करता है और कर्ज कम लेता है, तो रेटिंग बेहतर हो सकती है।

IMF, World Bank, ADB जैसी संस्थाएं भी भारत की ग्रोथ को 6.3% से 6.9% तक मान रही हैं

भारत कैसे सुधार कर रहा है?

  • GST सुधार और टैक्स सिस्टम को आसान बनाया गया।
  • मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसी योजनाओं से घरेलू उत्पादन बढ़ा।
  • बुनियादी ढांचे में निवेश – सड़कें, रेलवे, बंदरगाह आदि।
  • नियमों को सरल किया गया ताकि विदेशी निवेशक आसानी से व्यापार कर सकें।

Inflation (मुद्रास्फीति) क्या होता हैऔर कैसे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है?

इन्फ्लेशन (महंगाई) का मतलब है कि चीजों की कीमतें समय के साथ बढ़ती जाती हैं। जैसे, अगर आज 10 रुपये में एक किलो आलू मिलता है, लेकिन अगले साल वही आलू 12 रुपये का हो जाए, तो इसे इन्फ्लेशन कहते हैं।

महँगाई क्यों होती है?

  • ज्यादा डिमांड, कम सप्लाई: अगर लोग किसी चीज को बहुत खरीदना चाहते हैं, लेकिन वो चीज कम है, तो उसकी कीमत बढ़ जाती है।
  • उत्पादन लागत बढ़ना: अगर सामान बनाने का खर्चा (जैसे, तेल, मजदूरी) बढ़ता है, तो चीजें महंगी हो जाती हैं।
  • पैसे की मात्रा बढ़ना: अगर बाजार में बहुत ज्यादा पैसे हो जाते हैं (जैसे, सरकार ज्यादा नोट छापे), तो लोग ज्यादा खर्च करते हैं, और कीमतें बढ़ जाती हैं।

महंगाई के मुख्य कारण (सरल भाषा में):-

जनसंख्या का तेजी से बढ़ना – जब लोग ज्यादा हो जाते हैं और चीजें उतनी नहीं बनतीं, तो मांग बढ़ जाती है और दाम भी।

कच्चे माल और खेती की लागत बढ़ना – बीज, खाद, पानी, मजदूरी सब महंगे हो जाएं तो अनाज और सब्जियां भी महंगी बिकती हैं।

बाजार में सामान की कमी (Artificial Shortage) -व्यापारी जानबूझकर चीजें छुपा लेते हैं ताकि बाद में ज्यादा दाम पर बेच सकें।

काला बाजारी और जमाखोरी – कुछ लोग जरूरी चीजें जैसे दाल, तेल, गैस छुपा लेते हैं और बाद में महंगे दामों पर बेचते हैं।

सरकारी नीतियों में गड़बड़ी – अगर सरकार सही समय पर सही फैसले नहीं लेती, तो चीजों के दाम काबू से बाहर हो जाते हैं।

प्राकृतिक आपदाएं (बाढ़, सूखा, भूकंप) – फसलें खराब हो जाती हैं, जिससे खाने-पीने की चीजें कम हो जाती हैं और महंगी बिकती हैं।

तेल और गैस के दाम बढ़ना -जब पेट्रोल-डीजल महंगे होते हैं, तो ट्रांसपोर्ट महंगा होता है और हर चीज की कीमत बढ़ जाती है।

नोट छापना (Currency Printing) – अगर सरकार ज़्यादा नोट छाप देती है, तो बाजार में पैसे की मात्रा बढ़ जाती है और चीजें महंगी हो

धन का असमान वितरण – अमीर लोग ज्यादा खरीदते हैं, जिससे मांग बढ़ती है और गरीबों को चीजें महंगी मिलती हैं

क्या महँगाई हमेशा बुरी होती है?

थोड़ी बहुत महँगाई (2-4%) अच्छी होती है → इससे व्यापार चलता है, लोग चीजें बेचते–खरीदते हैं, मजदूरों को काम मिलता है।

ज्यादा महँगाई (जैसे 10-15% या उससे ऊपर) बहुत बुरी होती है →

  • गरीब आदमी का जीवन कठिन हो जाता है
  • खाने-पीने की चीजें महँगी हो जाती हैं
  • बचत की कीमत कम हो जाती है (आज का 100 रुपये कल कम काम करेगा)
  • देश की अर्थव्यवस्था (Economy) कमजोर हो जाती है।

ये देश की अर्थव्यवस्था को कैसे नुकसान पहुंचाती है?

  1. लोगों की खरीदने की ताकत कम होती है: अगर आपकी कमाई वही रहती है, लेकिन चीजें महंगी हो जाती हैं, तो आप कम सामान खरीद पाते हैं। इससे गरीब लोग ज्यादा परेशान होते हैं।
  2. बचत कम होती है: लोग ज्यादा खर्च करने लगते हैं, क्योंकि पैसे की कीमत कम हो रही होती है। इससे बचत कम होती है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं।
  3. ब्याज दरें बढ़ती हैं: बैंक महंगाई को कंट्रोल करने के लिए लोन की ब्याज दरें बढ़ा देते हैं। इससे कारोबार करना मुश्किल हो जाता है।
  4. निर्यात पर असर: अगर देश में चीजें बहुत महंगी हो जाएं, तो दूसरे देशों को हमारा सामान खरीदना महंगा लगता है, जिससे व्यापार कम हो सकता है।
  5. असमानता बढ़ती है: अमीर लोग महंगाई में भी ठीक रहते हैं, लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग को ज्यादा नुकसान होता है।

निष्कर्ष:-

थोड़ी महंगाई अर्थव्यवस्था के लिए ठीक होती है, क्योंकि इससे कारोबार और विकास बढ़ता है। लेकिन अगर महंगाई बहुत ज्यादा हो जाए, तो ये लोगों की जेब पर भारी पड़ती है और देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर सकती है। इसे कंट्रोल करने के लिए सरकार और बैंक कई कदम उठाते हैं, जैसे ब्याज दरें बढ़ाना या पैसे की सप्लाई कम करना।

PEG Ratio क्या है और कंपनी के विश्लेषण में PEG Ratio का महत्व क्या है ?

PEGRATIOएक महत्वपूर्ण मापदंड हैजिससे निवेशकों को यह तय करने में मदद मिलती है कि स्टॉक ओवरवैल्यूड है या अंडरवैल्यूड है।

किसी कंपनी के शेयर का मूल्य उसकी कमाई (Earnings) और उसके ग्रोथ (विकास) की रफ्तार दोनों को एक साथ देखकर तय करना। ये कंपनी के विश्लेषण में इसीलिए जरूरी है क्योंकि केवल P/E (Price to Earnings) देखने पर कंपनी ज्यादा महंगी या सस्ती नज़र आ सकती है, लेकिन अगर ग्रोथ तेज़ है, तो वही शेयर सस्ता भी हो सकता है।

कीमत/कमाई-से-ग्रोथ (PEG) अनुपात P/E अनुपात से एक कदम आगे बढ़ता है, जो एक निर्दिष्ट अवधि के लिए अपनी आय की वृद्धि दर से P/E अनुपात को विभाजित करता है. PEG अनुपात P/E अनुपात और अनुमानित आय की वृद्धि दर के बीच संबंध प्राप्त करता है, 

Peg Ratio की गणना कैसे करें?

PEG Ratio निकालने के लिए आपको दो चीज़ें चाहिए:

    1. P/E Ratio (Price to Earnings Ratio)

    2.Earnings Growth Rate (कमाई की वृद्धि दर)

    PEG Ratio का फ़ॉर्मूला  = P/E Ratio ÷ Earnings Growth Rate
    

    price to earnings कैसे निकले इसके लिए आप इस लिंक को देखे –Price to Earnings Ratio (P/E Ratio) क्या है ? – nbusiness4.com

    आसान उदाहरण से समझिए:

    मान लीजिए किसी कंपनी का:

    • P/E Ratio = 20
    • Earnings Growth Rate = 10%
    PEG Ratio = 20 ÷ 10 = 2

    Peg Ratio यह 2 है –

    इसका मतलब क्या हुआ?

    • PEG < 1 → शेयर सस्ता है (अंडरवैल्यूड)
    • PEG = 1 → सही कीमत पर है (फेयर वैल्यू)
    • PEG > 1 → शेयर महंगा है (ओवरवैल्यूड)

    जो 1 से ज्यादा है इसका मतलब स्टॉक महँगा है |

    PEG Ratio का विश्लेषण में महत्व –

      क्योंकि ये सिर्फ आज की कीमत नहीं देखता, बल्कि भविष्य की ग्रोथ को भी ध्यान में रखता है।

      • PEG Ratio बताता है कि कंपनी के ग्रोथ की तुलना में उसका P/E सही है या नहीं।
      • PEG Ratio 1 या उसके आसपास हो तो शेयर की कीमत और ग्रोथ बैलेंस में है।
      • अगर PEG 1 से कम है, तो शेयर अंडरवैल्यूड (सस्ता) हो सकता है।
      • अगर PEG 1 से ज्यादा है, तो शेयर ओवरवैल्यूड (महंगा) हो सकता है।
      • पुराने या धीमे ग्रोथ वाली कंपनियों में PEG का उपयोग कर सकते हैं, जबकि तेज़-ग्रोथ कंपनियों में अनुमान बदल सकता है.
      • संतुलित मूल्यांकन: सिर्फ P/E Ratio से पता नहीं चलता कि कंपनी आगे कितना बढ़ेगी। PEG Ratio से यह साफ होता है।
      • अंडरवैल्यूड शेयर पकड़ना आसान: कुछ कंपनियां कम कीमत पर होती हैं लेकिन उनकी ग्रोथ बहुत तेज होती है — PEG Ratio से ऐसे शेयर पहचान सकते हैं।
      • सेक्टर तुलना आसान: टेक कंपनी और मैन्युफैक्चरिंग कंपनी की ग्रोथ अलग होती है, PEG Ratio से दोनों की तुलना करना आसान होता है।

      उदाहरण (Example) –

      मान लीजिए किसी कंपनी का P/E Ratio है 18 और कमाई में अगले साल 10% की बढ़त की उम्मीद है:

      • PEG Ratio = 18 / 10 = 1.8
        यहाँ PEG ज्यादा है, मतलब शेयर महंगा है।
        अगर किसी दूसरी कंपनी का P/E 22 और ग्रोथ 27% है, तो PEG = 22/27 – 0.81
        यह सस्ता या डिस्काउंट में दिखा सकता है

      सावधानी :-

      • PEG Ratio सिर्फ एक इंडिकेटर है, निवेश निर्णय के लिए दूसरे आंकड़े और इंडिकेटर्स भी देखें।
      • ग्रोथ रेट का अनुमान बदल सकता है इसलिए भविष्य के लिए सही डेटा चाहिए।
      • यह Ratio स्थिर/कम या नियमित बढ़ने वाली आय वाली कंपनियों (जैसे FMCG, Pharma) के लिए बेहतर काम करता है.

      निष्कर्ष:-

      PEG Ratio एक स्मार्ट निवेशक का टूल है। यह आपको सिर्फ आज की कीमत नहीं, बल्कि कल की संभावनाओं को भी दिखाता है। अगर आप शेयर मार्केट में समझदारी से निवेश करना चाहते हैं, तो PEG Ratio को ज़रूर समझिए और इस्तेमाल कीजिए।

      Leverage (लेवरेज) क्या होता है और ये कैसे काम करता है?

      किसी चीज़ (जैसे पैसा या संसाधन) का “सहारा लेकर ज़्यादा फायदा उठाना” या “लाभ को बढ़ाना”। आसान भाषा में, जब कोई अपने पास लिमिटेड पैसा हो, और बाकी पैसा उधार लेकर कोई बड़ा काम करता है, तो उसे leverage कहते हैं या जब आप अपने पास कम पैसे होते हुए भी किसी से उधार लेकर या किसी सुविधा का इस्तेमाल करके ज़्यादा निवेश करते हैं, तो उसे लेवरेज कहते हैं।

      Leverage आसान शब्दों में –

      • Leverage का सीधा अर्थ है “लाभ उठाना” या “सहारा लेना”
      • फाइनेंस में, leverage का मतलब है—कम पैसे और बाकी उधार पैसे लगाकर ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की कोशिश करना।

      Leverage कैसे काम करता है –

      सरल उदाहरण से समझे :-

      मान लीजिए राम के पास ₹1,000 हैं ,उसे एक ऐसा मोबाइल दिखा जिसकी कीमत ₹5,000 है और वो जानता है कि कुछ दिनों में उसकी कीमत ₹6,000 हो जाएगी।

      राम अपने दोस्त श्याम से ₹4,000 उधार लेता है और मोबाइल खरीद लेता है।

      कुछ दिन बाद राम उस मोबाइल को ₹6,000 में बेच देता है।

      • कुल कमाई = ₹6,000
      • कुल खर्च = ₹5,000
      • मुनाफा = ₹1,000

      राम ने सिर्फ ₹1,000 लगाए थे, लेकिन ₹1,000 का मुनाफा कमाया — यानी 100% रिटर्न। ये हुआ ₹5,000 लेवरेज का कमाल

      Leverage के नुकसान: –

      • जोखिम बढ़ जाता है: जितना मुनाफा बढ़ सकता है, उतना ही नुकसान भी बहुत तेजी से बढ़ सकता है, क्योंकि नुकसान होने पर उधारी चुकानी ही पड़ती है।
      • ब्याज और दबाव: उधारी वाले पैसे पर ब्याज देना होता है, जिससे दबाव बढ़ जाता है अगर मुनाफा कम हुआ तो भी ब्याज तो देना ही पड़ेगा।
      • आर्थिक संकट का खतरा: अगर व्यापार या निवेश में उम्मीद अनुसार लाभ नहीं हुआ, तो कर्ज चुकाने में बहुत कठिनाई हो सकती है और आर्थिक हालत भी खराब हो सकती है।
      • मानसिक दबाव बढ़ता है: उधार की वजह से तनाव और चिंता बढ़ सकती है।
      • कंपनी दिवालिया हो सकती है: अगर लेवरेज ज़्यादा हो और बिज़नेस न चले, तो कंपनी बंद भी हो सकती है।

      Leverage के फायदे :-

      • कम पूंजी में बड़ा लाभ: लिवरेज से कम पैसों में ज्यादा निवेश या व्यापार किया जा सकता है, जिससे मुनाफा बढ़ सकता है।
      • विकास के नए मौके: इसके सहारे कंपनी या व्यक्ति नए मौके और बड़े मौके पकड़ सकता है, जो अपने पैसों से शायद संभव न हो।
      • कर (टैक्स) में छूट: जो पैसा उधार लिया जाता है, उस पर जो ब्याज जाता है, उसमें अक्सर टैक्स छूट भी मिल सकती है।
      • मुनाफा बढ़ाने का मौका: अगर सौदा सफल रहा, तो आपका मुनाफा कई गुना हो सकता है।
      • बिज़नेस में ग्रोथ जल्दी होती है: कंपनियाँ उधार लेकर जल्दी विस्तार कर सकती हैं।
      • संसाधनों का बेहतर उपयोग: कम संसाधनों से ज़्यादा काम निकलवाया जा सकता है।

      एक लाइन में समझो:

      लेवरेज एक तेज़ रफ्तार गाड़ी की तरह है — सही तरीके से चलाओ तो जल्दी मंज़िल मिलेगी, लेकिन गलती हुई तो बड़ा एक्सीडेंट भी हो सकता है।

      Price to Earnings Ratio (P/E Ratio) क्या है ?

      सोचिए आप एक दुकान से कोई चीज़ खरीदते हैं। आप हमेशा सोचते हैं कि “इस चीज़ की कीमत ठीक है या ज़्यादा है?” ठीक वैसे ही, शेयर बाज़ार में भी लोग सोचते हैं कि “इस कंपनी का शेयर सस्ता है या महंगा?”

      P/E Ratio यही बताता है।

      Price to Earnings Ratio (P/E Ratio) का मतलब होता है कंपनी के एक शेयर की कीमत और उस कंपनी की प्रति शेयर कमाई (earning) के बीच का अनुपात। सरल शब्दों में कहें तो –

      • Price मतलब उस कंपनी के एक शेयर की कीमत।
      • Earnings मतलब उस कंपनी ने एक साल में एक शेयर पर कितना मुनाफा कमाया।

      अब अगर आप किसी कंपनी का शेयर खरीदते हैं, तो आप ये जानना चाहेंगे कि:

      “मैं ₹1 कमाई के लिए कितने पैसे दे रहा हूँ?”

      • जब आप किसी कंपनी का शेयर खरीदते हैं तो आप उसकी कमाई के लिए कितना पैसा दे रहे हैं, यह पता करने के लिए P/E Ratio का इस्तेमाल किया जाता है।
      • इसका फॉर्मूला है:P/E Ratio = शेयर की कीमत / प्रति शेयर कमाई (Earnings per Share, EPS)
      • उदाहरण: अगर एक कंपनी के शेयर की कीमत ₹100 है और कंपनी हर साल प्रति शेयर ₹5 कमाती है, तो उसका P/E Ratio होगा 100/5 = 20।
      • इसका मतलब है कि आप कंपनी की ₹1 कमाई के लिए ₹20 दे रहे हैं।

      P/E Ratio का मतलब यह भी हो सकता है:

      • अगर P/E Ratio ज्यादा है, तो शेयर महंगा माना जाता है या निवेशक भविष्य में कंपनी के ज्यादा बढ़ने की उम्मीद रखते हैं।
      • अगर P/E Ratio कम है, तो शेयर सस्ता माना जाता है या कंपनी के भविष्य में अच्छा प्रदर्शन न करने की आशंका होती है।

      यह अनुपात आपको यह समझने में मदद करता है कि शेयर का दाम उसके कमाई के हिसाब से सही है या नहीं। इसका उपयोग कंपनियों की तुलना करने के लिए भी किया जाता है, जैसे दो कंपनियों के P/E Ratio देख कर समझ सकते हैं कौन सस्ता या महंगा है।

      यह अनुपात आपको यह समझने में मदद करता है कि शेयर का दाम उसके कमाई के हिसाब से सही है या नहीं। इसका उपयोग कंपनियों की तुलना करने के लिए भी किया जाता है, जैसे दो कंपनियों के P/E Ratio देख कर समझ सकते हैं कौन सस्ता या महंगा है।

      इस तरह, P/E Ratio एक आसान तरीका है कंपनी के शेयर की वैल्यू का अंदाजा लगाने का।

      अगर और आसान भाषा में समझना हो तो कह सकते हैं: “आपके पैसे की कीमत और कंपनी की कमाई की ताकत के बीच रिश्ता”।

      एक उदाहरण से समझते हैं:

      मान लीजिए:

      • कंपनी का एक शेयर ₹100 में बिक रहा है।
      • और कंपनी ने एक साल में हर शेयर पर ₹10 कमाया।

      तो P/E Ratio होगा: ₹100 ÷ ₹10 = 10

      इसका मतलब:

      आप ₹10 कमाई के लिए ₹100 दे रहे हैं। यानी 10 गुना ज़्यादा।

      P/E Ratio से निवेशक को यह पता चलता है कि किसी कंपनी के शेयर की कीमत उसकी कमाई की तुलना में ज्यादा है या कम।

      P/E ratio की बेहतर तुलना करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण टिप्स ये हैं जो खासकर शुरुआती निवेशकों के लिए आसान और मददगार हैं:-

      1. सेक्टर के हिसाब से तुलना करें:
        • अलग-अलग सेक्टर्स (जैसे IT, FMCG, बैंकिंग) के कंपनियों के P/E ratio में बड़ा अंतर होता है। इसलिए केवल उसी सेक्टर की कंपनियों के P/E ratio की तुलना करें।
      2. ऐतिहासिक P/E ratio देखें:
        • कंपनी का पिछले 3-5 साल का P/E ratio देखें। यदि वर्तमान P/E बहुत ज्यादा है तो सावधानी रखें।
      3. मार्केट के औसत P/E ratio के साथ तुलना करें:
        • उदाहरण के लिए, Nifty 50 का औसत P/E करीब 22 होता है। यदि कोई कंपनी इसका अच्छा खासा ऊपर या नीचे है, तो इसका मतलब शेयर महंगा या सस्ता हो सकता है।
      4. कंपनी की ग्रोथ (मुनाफे की बढ़त) के साथ देखें:
        • अगर कंपनी तेजी से बढ़ रही है, तो ज्यादा P/E ratio भी सही हो सकता है, क्योंकि निवेशक भविष्य में ज्यादा कमाई की उम्मीद करते हैं।
      5. कंपनी के कर्ज (Debt) और जोखिम को भी देखें:
        • दो कंपनियों का P/E समान हो सकता है लेकिन जिस कंपनी का कर्ज ज्यादा है, उसका जोखिम अधिक होता है।
      6. सेक्टर के औसत P/E ratio के साथ तुलना करना भी जरूरी है:
        • अगर किसी कंपनी का P/E उस सेक्टर के औसत से कम है, तो वह शेयर सस्ता हो सकता है।

      इन सभी बातों को ध्यान में रखकर ही P/E ratio की तुलना करें ताकि सही निर्णय लिया जा सके।

      पूंजीगत व्यय या कैपेक्स क्या है ,सरकार क्यों कैपेक्स बढ़ाते है ?

      Capex का मतलब है “Capital Expenditure” यानी पूंजीगत खर्चा। ये वो पैसा होता है जो कोई कंपनी, सरकार या कोई संस्था अपने लंबे समय तक चलने वाले assets (जैसे मशीन, फैक्ट्री, बिल्डिंग, सड़क, या टेक्नोलॉजी) को खरीदने या सुधारने में खर्च करती है।

      सरकार और देश के लिए Capex बहुत जरूरी होता है क्योंकि यही खर्चा नई इन्फ्रास्ट्रक्चर (जैसे सड़क, अस्पताल, बिजली, ट्रेन लाइन) बनाने, उद्योगों को बढ़ाने, और देश की आर्थिक ताकत बढ़ाने में काम आता है। जब सरकार या कंपनी Capex बढ़ाती है, तो इससे नए काम पैदा होते हैं, लोग रोजगार पाते हैं, और देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होती है।

      सरल भाषा में समझें तो, जैसे घर बनाने के लिए ज़मीन खरीदना, ईंट- पत्थर लगाना और मजबूत छत बनाना है तो उसके लिए पैसे खर्च करना पड़ता है , वैसे ही देश को और कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर खर्चा यानी Capex करना पड़ता है।

      उदाहरण: अगर सरकार नए हायवे बनाती है या फैक्ट्री खोलती है, तो ये Capex होता है जो भविष्य में देश की प्रगति में मदद करता है। यह खर्चा आमतौर पर लंबे समय तक फायदा देने वाला होता है,

      देश की अर्थव्यवस्था पर Capex का असर –

      नए रोजगार बनना

      जब सरकार या कंपनियां Capex करती हैं, जैसे नई फैक्ट्री, सड़क, या बिजली पावर प्लांट बनाना, तो वहां काम के लिए मजदूर, इंजीनियर, टेक्नीशियन आदि की जरूरत होती है। इससे रोजगार बढ़ते हैं और लोग पैसे कमाने लगते हैं, जिससे उनकी खरीदारी बढ़ती है |

      उत्पादन और व्यापार बढ़ता है

      Capex से ज्यादा कारखाने, मशीनरी, और संसाधन उपलब्ध होते हैं, जिससे उत्पादन बढ़ता है। उत्पादन बढ़ने का मतलब है कि देश में ज्यादा सामान बनेंगे, जिन्हें बेचकर देश की आय बढ़ेगी |

      आर्थिक विकास तेज़ होता है

      जब Capex बढ़ता है, तो देश की इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर होती है जैसे सड़क, रेलवे, बिजली। इससे व्यापार करना आसान होता है, सामान जल्दी और सस्ते में मिलता है, और निवेश भी बढ़ता है। इससे GDP यानी देश की कुल आर्थिक क्रियाकलाप बढ़ते हैं,Capex करने से देश की आर्थिक ताकत बढ़ती है क्योंकि ये लंबे समय तक चलने वाले संसाधन बनाते हैं जो भविष्य में ज्यादा उत्पादन और सेवाएं देंगे। इस तरह से देश की स्थिर और दीर्घकालिक वृद्धि होती है |

      सरकार Capex (पूंजीगत व्यय) को बढ़ाने के लिए तय करती है कि GDP का कितना हिस्सा Capex पर खर्च किया जाएगा |

      कुछ Capex बढ़ाने के तरीके –

      1. बजट में आवंटन बढ़ाना: सरकार हर साल अपना बजट बनाती है जिसमें तय करती है कि कुल खर्च में से कितना पैसा Capex पर खर्च होगा। उदाहरण के लिए, भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2022-23 में Capex को 7.5 लाख करोड़ रुपये (लगभग 2.9% GDP) तक बढ़ाया था ताकि इंफ्रास्ट्रक्चर और आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया जा सके.
      2. प्राथमिकता तय करना: सरकार विभिन्न क्षेत्रों जैसे सड़क, रेलवे, शहरी विकास, बंदरगाह, और नागरिक उड्डयन में कितना निवेश करना है, यह तय करती है। पिछले समय में सड़क और रेलवे पर अधिक खर्च होता था, लेकिन अब सरकार शहरी बुनियादी ढांचे और एयरलाइंस जैसे नए सेक्टर्स पर भी ध्यान दे रही है.
      3. नीतिगत निर्णय: सरकार Capex बढ़ाने के लिए नई नीतियां बनाती है, जैसे प्राइवेट सेक्टर को निवेश के लिए प्रेरित करना, सप्लाई चेन की समस्याओं को हल करना, और सरकारी खरीद के नियमों में सुधार करना ताकि निवेश प्रक्रिया सुगम हो सके.
      4. पिछले वर्षों का विश्लेषण: सरकार पिछले सालों की आर्थिक स्थिति और विकास की रफ्तार को देखकर Capex का लक्ष्य निर्धारित करती है ताकि अर्थव्यवस्था को बेहतर बढ़ावा मिल सके।

      GDP का कितना हिस्सा Capex के लिए खर्च होता है?

      देश की सरकारें यह तय करती है कि GDP का कितना हिस्सा Capex पर खर्च किया जाए। उदाहरण के लिए, भारत ने FY 2022-23 में लगभग 2.9% GDP को Capex के लिए रखा और वही FY 2025-2026के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संघीय बजट में पूंजी व्यय लक्ष्य को 10.08% बढ़ाकर 11.21 लाख करोड़ रुपये करने का प्रस्ताव दिया है। यह प्रतिशत देश की आर्थिक जरूरतों और विकास लक्ष्यों के हिसाब से बदलता रहता है |

      सरल शब्दों में: – सरकार देश की जरूरत, पैसे की उपलब्धता, और आर्थिक संतुलन का ध्यान रख कर तय करती है कि GDP का कितना हिस्सा कैपेक्स में लगाया जाए ताकि देश की समृद्धि बढ़े।

      सरकार का उद्देश्य यह होता है कि Capex बढ़ाने से आर्थिक विकास तेज हो, रोजगार बढ़े, और देश की आधारभूत संरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) बेहतर बने, जिससे भविष्य में देश की उत्पादन क्षमता मजबूत हो |

      स्टॉक मार्केट में कॉम्पीटिशन (प्रतिस्पर्धा) और सेक्टर एनालिसिस कैसे करें ?

      कॉम्पीटिशन (प्रतिस्पर्धा) एनालिसिस क्या है?

      कॉम्पीटिशन एनालिसिस का मतलब है—किसी खास सेक्टर में लिस्टेड कंपनियों की तुलना करना: कौन सी मजबूत है, किसमें कमियाँ हैं, किस कंपनी का बाजार में कितना हिस्सा (मार्केट शेयर) है, और वे कैसे बिजनेस कर रही हैं। यह जानने से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किस कंपनी में पैसा लगाना कम रिस्क और अच्छे रिटर्न का मौका दे सकता है।

      शेयर बाजार में सेक्टर विश्लेषण का उपयोग करने के लिए, वर्तमान आर्थिक चक्र में अग्रणी क्षेत्रों की पहचान करें, फिर उन क्षेत्रों के भीतर मौलिक रूप से मजबूत स्टॉक चुनें। आय, बाजार हिस्सेदारी और विकास क्षमता का विश्लेषण करें। अपने स्टॉक पिक्स को मैक्रो ट्रेंड, सेक्टर की ताकत और संस्थागत खरीद पैटर्न के साथ संरेखित करें। क्योकि यह समझना बहुत जरूरी है कि किस स्टॉक में कब और क्यों निवेश किया जाए |

      क्योकि कंपनी के फाइनेंशियल परफॉर्मेंस, मैनेजमेंट की क्वालिटी, इंडस्ट्री पोजिशन और माइक्रो इकोनॉमिक्स इंडिकेटर का एनालिसिस करते हैं और जब हम किसी एक कंपनी का चुनाव केरते है तब हम उस कंपनी को उसके कॉम्पिटिटर के साथ एनालिसिस करते है है तब उस कंपनी की ग्रोथको और आसानी से समझ सकते है

      कॉम्पीटिशन एनालिसिस कैसे करें? –

      1. कंपनी व सेक्टर की पहचान करें
        • पहले तय करें कि किस सेक्टर (जैसे बैंकिंग, आईटी, फार्मा) में निवेश की सोच रहे हैं।
        • उस सेक्टर में लीडर कंपनियाँ कौन हैं—उन्हें लिस्ट करें (जैसे बैंकिंग में SBI, HDFC Bank, ICICI Bank)।
      2. फाइनेंशियल डाटा देखें
        • कंपनी का सेल्स, प्रॉफिट, ग्रोथ रेट, कर्ज (debt), और डिविडेंड रिकॉर्ड देखें।
        • इन्हीं पैमानों पर एक ही सेक्टर की दूसरी कंपनियों से तुलना करें।
      3. बाजार हिस्सेदारी (मार्केट शेयर) समझें
        • कौन सी कंपनी सबसे ज्यादा सेल करती है? उसका बाजार में हिस्सा कितना है?
        • क्या वह कंपनी बाकी कंपनियों से तेजी से आगे बढ़ रही है?
      4. यूनिक वैल्यू और कमजोरियाँ खोजें
        • कंपनी की खास खूबी (USP) क्या है? क्या उसे मार्केट में कोई नई तकनीक या स्टाइल फायदा दे रही है?
        • उनकी असल चुनौतियाँ और कमजोरियाँ क्या हैं?

      सेक्टर चुनना—कैसे तय करें?

      1. सेक्टर को समझना और पहचानना
        • सभी सेक्टर एक जैसे नहीं होते। हर सेक्टर की ग्रोथ, जोखिम और मौके अलग होते हैं।
        • उदाहरण: टेक्नोलॉजी सेक्टर तेज़ी से बढ़ सकता है परंतु उसमें उतार-चढ़ाव भी हो सकते हैं। बैंकिंग सेक्टर में स्थिरता और फायदा देर से आता है।
      2. सेक्टर एनालिसिस के स्टेप्स
        • सेक्टर में मुख्य फैक्टर्स जैसे—सरकारी नीतियाँ, ग्लोबल ट्रेंड्स, डिमांड- सप्लाई आदि को जानें।
        • उस सेक्टर के लिए ज़रूरी इंडिकेटर (जैसे बैंकिंग में NPA, IT में नए ऑर्डर, Auto में बिक्री आदि) को जानें और उनका पिछले 2-3 साल का ट्रेंड देखें।
      3. सेक्टर वाइज मार्केट परफॉर्मेंस देखें
        • मार्केट वेबसाइट्स (जैसे Moneycontrol, NSE, BSE) पर “Sector Performance” या “Top Performing Sectors” की लिस्ट देखें।
        • जो सेक्टर तेज़ी या मजबूत प्रदर्शन दिखा रहा हो, वहां के लीडर कंपनियों को चुनें।
      4. अपने इंटरेस्ट/पढ़ाई से मिलता-जुलता सेक्टर उठाएँ
        • जिस सेक्टर को खुद बेहतर समझते हैं, वहां से शुरुआत करना आसान रहता है (जैसे इंजीनियर—IT सेक्टर, डॉक्टर—फार्मा सेक्टर)।

      Example से समझते है –

      HDFC Bank का एक सिंपल, रियल-वर्ल्ड असरदार competitor analysis नीचे step-by-step करके बताया गया है। इसमें मुख्य प्रतियोगी SBI और ICICI Bank चुने गए हैं, जिन्हें भारत के बैंकिंग सेक्टर में HDFC की असली टक्कर माना जाता है।

      1. मेन कम्पटीटिटर की पहचान

      • HDFC Bank (private sector )
      • SBI (public sector )
      • ICICI Bank (private sector )

      2. मुख्य तुलना बिंदु और लेटेस्ट आंकड़े (FY25)

      मापदंडHDFC BankSBIICICI Bank
      Net Profit (YoY ग्रोथ)₹67,347 Cr (10.7%)₹70,901 Cr (16.1%)₹47,227 Cr (15.5%)
      Net Interest Income (NII)₹1.23 लाख Cr (12.9%)₹1.66 लाख Cr (4.4%)₹81,164 Cr (9.2%)
      Asset Quality (GNPA/NNPA)1.33% / 0.30%1.82% / 0.47%2.16% / 0.42%
      Deposit Growth (YoY)₹27.4 लाख Cr (14.1%)₹53.8 लाख Cr (9.5%)₹15.2 लाख Cr (12.8%)
      Return Ratios (ROA/ROE)1.94% / 14.4%1.10% / 19.87%2.22% / 16.16%
      Net Interest Margin (NIM)3.43%3.09%4.40%

      3. स्ट्रेंथ्स-वीकनेस

      • HDFC Bank
        • स्ट्रेंथ—बेहतर asset quality (कम NPA), तेजी से बढ़ती deposits, अच्छी ब्रांड इमेज।
        • कमज़ोरी—फिक्स रेट लेंडिंग होने से falling rate cycle में margin में दबाव आ सकता है।
      • SBI
        • स्ट्रेंथ—देश में सबसे बड़ा, सरकारी बैकिंग, बड़ी प्रोविजनिंग, मजबूत कस्टमर बेस।
        • कमज़ोरी—लोन रीप्राइसिंग धीमी, ज्यादा कैपिटल जरूरी, ब्याज में गिरावट से मुनाफा पर असर जल्दी पड़ता है।
      • ICICI Bank
        • स्ट्रेंथ—हाई नेट इंटरेस्ट मार्जिन (NIM), तेज क्रेडिट ग्रोथ,
        • कमज़ोरी—ग्राहकों का फोकस ज़्यादा कारपोरेट/शहरों तक सिमित, ग्रोथ की तेजी के साथ रिस्क थोड़ा ज्यादा।

      4. मार्केट शेयर और अन्य जानकारी

      • HDFC Bank, SBI और ICICI की मार्केट कैप व परफॉर्मेंस अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग्स में भी दिखती है, ICICI Bank की ब्रांड वैल्यू तेज़ी से बढ़ रही है, जबकि HDFC की फाइनेंसियल स्थिरता निवेशकों को पसंद आती है।

      निष्कर्ष

      • प्रतियोगी विश्लेषण में देखा गया कि HDFC Bank asset quality, और डिपॉजिट ग्रोथ में आगे है, SBI आकार और सरकारी ताकत के बल पर, जबकि ICICI Bank मार्जिन लीडर और तेज ग्रोथ के लिए जाना गया है।
      • हर बैंक की स्ट्रेटेजी, कस्टमर बेस, और रिटर्न/रिस्क प्रोफाइल अलग हैं—इसी से निवेशक को चुनाव और रिस्क समझना आसान हो जाता है।

      प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income) क्या है? 

      प्रति व्यक्ति आय (Per Capita Income) का मतलब है किसी भी देश या क्षेत्र में हर एक व्यक्ति की औसत आय कितनी है। इसे बहुत ही सरल भाषा में समझें तो, यह बताता है कि अगर किसी देश की कुल कमाई को वहां के सभी लोगों में बराबर बांट दिया जाए, तो हर व्यक्ति के हिस्से में कितनी आय आएगी।

      प्रति व्यक्ति आय विभिन्न देशों के अलग-अलग जीवन स्तर का एक महत्वपूर्ण सूचकांक होती है। यह मानव विकास सूचकांक में सम्मिलित तीन संख्याओं में से एक है। अनौपचारिक बोलचाल में प्रति व्यक्ति आय को औसत आय भी कहा जाता है, और आमतौर पर अगर एक राष्ट्र की औसत आय किसी दूसरे राष्ट्र से अधिक हो, तो पहला राष्ट्र दूसरे से अधिक समृद्ध और सम्पन्न माना जाता है।

      कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ वार्षिक रूप से विश्वभर के देशों की प्रति व्यक्ति आय की सूचियाँ बनाती हैं।

      यह सूचियाँ दो आधारों पर बनाई जाती हैं –

      • अभारित सूची (Nominal) – यह सरल सूचियाँ सीधे कमाई जाने वाली मुद्रा में आय को लेकर अभारित रूप से (यानि बिना किसी फेर-बदल के) बनाई जाती है और अधिकतर इन्हीं सूचियों का प्रयोग होता है।
      • क्रय-शक्ति समता पर आधारित सूची (PPP) – यह सूचिया क्रय-शक्ति समता के आधार पर बनती हैं और इनसे यह अंदाज़ा लगाया जाता है कि किसी क्षेत्र में लोग अपनी आय से कितना खरीद सकते हैं, जो भिन्न माल और सेवाओं की स्थानीय कीमतों पर निर्भर करता है।

      कैसे निकालते हैं प्रति व्यक्ति आय –

      जीडीपी प्रति व्यक्ति आय को नॉमिनल जीडीपी को देश की जनसंख्या से भाग देकर निकाला जाता है। इससे तय होता है कि देश में प्रति व्यक्ति औसत आय कितनी है। जब किसी वर्ष की जीडीपी की गणना की जाती है ,उसी वर्ष के मध्य की जनसंख्या का आंकड़ा भाग करने के लिए उपयोग किया जाता है।

      • प्रति व्यक्ति आय = कुल राष्ट्रीय आय ÷ कुल जनसंख्या
      • उदाहरण: अगर किसी देश की कुल सालाना आय 80 लाख रुपये है और वहां 10 लोग रहते हैं, तो प्रति व्यक्ति आय होगी 80,00,000 ÷ 10 = 800,000 रुपये।

      इसका क्या महत्व है –

      • यह किसी देश या क्षेत्र के लोगों की औसत आर्थिक स्थिति को दिखाता है।
      • इससे पता चलता है कि उस देश के लोगों का जीवन स्तर (standard of living) कितना अच्छा और ख़राब है।
      • इसका उपयोग देशों या राज्यों की तुलना करने या वहाँ की आर्थिक प्रगति समझने के लिए भी किया जाता है |

      आसान भाषा में समझिए –

      • “प्रति व्यक्ति” यानी “हर व्यक्ति के लिए”,
      • “आय” यानी “कमाई”।
      • जैसे स्कूल में टीचर 100 टॉफियाँ 20 बच्चों में बराबर बांट दे, तो हर बच्चे को 5 टॉफियाँ मिलती हैं। ठीक वैसे ही, देश की कुल कमाई जितने लोग हैं, उनके बीच बांट दी जाती है, तो प्रति व्यक्ति आय पता चलती है।

      मुख्य बातें –

      • यह औसत आय है, सभी लोगों की कमाई एक जैसी नहीं होती, पर यह एक साधारण माप है।
      • देश की वास्तविक खुशहाली के लिए सिर्फ यह आंकड़ा काफी नहीं है, मगर तुलनात्मक और योजनाबद्ध सोच के लिए यह आसान और जरूरी तरीका है।

      क्रेडिट कार्ड कैसे काम करता है ?

      क्रेडिट कार्ड काम कैसे करता है , लेकिन उससे पहले ये जानते है कि क्रेडिट कार्ड होता क्या है |

      क्रेडिट कार्ड एक भुगतान कार्ड है, जो आमतौर पर बैंक द्वारा जारी किया जाता है, जो अपने उपयोगकर्ताओं को सामान या सेवाएं खरीदने या क्रेडिट पर नकदी निकालने की अनुमति देता है। इस प्रकार कार्ड का उपयोग करने पर कर्ज़ चढ़ जाता है जिसे बाद में चुकाना पड़ता है। क्रेडिट कार्ड का अर्थ एक वित्तीय टूल है जो बैंक द्वारा जारी किया जाता है। इसका उपयोग कर आप अपने पर्सनल खर्चों, ऑनलाइन खरीददारी, यात्रा आदि के लिए कहीं भी व कभी भी कर सकते हैं।

      क्रेडिट कार्ड का सही तरीके से उपयोग आपको आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। आइए जानते है कि क्रेडिट कार्ड कैसे काम करता है:

      1. क्रेडिट लिमिट: बैंक या कार्ड जारीकर्ता आपकी क्रेडिट योग्यता के आधार पर एक सीमा निर्धारित करता है, जिसे क्रेडिट लिमिट कहते हैं। आप इस लिमिट के अंदर ही खर्च कर सकते हैं।
      2. खरीदारी: जब आप क्रेडिट कार्ड से कोई सामान या सेवा खरीदते हैं, तो आपका कार्ड नंबर व्यापारी के बैंक को भेजा जाता है। यह बैंक क्रेडिट कार्ड नेटवर्क के माध्यम से आपकी जानकारी करदाता बैंक (कार्ड जारीकर्ता) को भेजता है।
      3. लेन-देन की पुष्टि: कार्ड जारीकर्ता बैंक आपके खाते की क्रेडिट लिमिट और अन्य विवरण जांच कर लेन-देन को स्वीकृत या अस्वीकृत करता है।
      4. ब्याज मुक्त अवधि: क्रेडिट कार्ड में आमतौर पर 40-50 दिनों का बिलिंग साइकिल होता है, जिसमें अगर आप पूरा बिल समय पर चुकाते हैं तो ब्याज नहीं लगता।
      5. बिल और भुगतान: हर महीने आपको क्रेडिट कार्ड स्टेटमेंट प्राप्त होता है जिसमें आपके कुल खर्चे, शेष राशि, न्यूनतम भुगतान राशि और भुगतान की अंतिम तिथि होती है। आप तय दिन तक भुगतान कर सकते हैं या कम से कम न्यूनतम राशि चुका सकते हैं।
      6. ब्याज: अगर आप पूरा बिल समय पर नहीं चुकाते हैं तो शेष राशि पर ब्याज लगना शुरू हो जाता है, जो आमतौर पर 35%-40% और ज्यादा भी हो सकता है ये डिपेंड करता है उस बैंक पर जो क्रेडिट देता है आपको ।
      7. कैश एडवांस: क्रेडिट कार्ड के माध्यम से आप नकद भी निकाल सकते हैं, लेकिन कैश एडवांस पर ब्याज तुरंत लगना शुरू हो जाता है और यह सामान्य खर्च की तुलना में अधिक महंगा पड़ता है।
      8. रिवॉर्ड और कैशबैक: कई क्रेडिट कार्ड रिवार्ड पॉइंट, कैशबैक और अन्य लाभ भी देते हैं, जैसे खाने-पीने, ट्रैवल, या शॉपिंग पर छूट।

      व्यावहारिक उदाहरण के साथ समझिये:

      1. क्रेडिट लिमिट मिली:
        मान लीजिए बैंक ने आपको 50,000 रुपये का क्रेडिट कार्ड दिया है। इसका मतलब है कि आप अधिकतम 50,000 रुपये तक का खर्च कर सकते हैं।
      2. खरीदारी करना:
        आप कहीं कपड़े खरीदने जाते हैं और 10,000 रुपये के कपड़े खरीदते हैं। आप अपने क्रेडिट कार्ड से पेमेंट करते हैं।
      3. लेन-देन प्रोसेसिंग:
        आपके क्रेडिट कार्ड की जानकारी (जैसे कार्ड नंबर, एक्सपायर डेट, CVV) दुकान के बैंक को भेजी जाती है।
        बैंक आपकी क्रेडिट लिमिट और डिटेल्स चेक करता है और अगर सब ठीक हो तो खरीदारी को मंजूरी दे देता है।
      4. बैंक भुगतान करता है दुकानदार को:
        बैंक तुरंत दुकानदार को 10,000 रुपये भेज देता है ताकि आपका सामान फटा-फट मिल सके।
      5. आपका क्रेडिट लिमिट घटती है:
        अब आपकी क्रेडिट लिमिट 50,000 – 10,000 = 40,000 रुपये रह जाती है, यानी आप अगले 40,000 रुपये तक ही खर्च कर सकते हैं।
      6. बिल और भुगतान:
        महीने के अंत में बैंक आपको क्रेडिट कार्ड का एक स्टेटमेंट भेजेगा जिसमें आपकी कुल खर्ची हुई राशि दिखेगी।
        • आपको यह दिखाया जाएगा कि कुल कितना खर्च हुआ (यहाँ 10,000 रुपये)
        • आखिरी तारीख तक पूरा बिल चुकाने पर कोई ब्याज नहीं लगेगा
        • आप चाहे तो न्यूनतम राशि भी चुका सकते हैं, लेकिन शेष राशि पर ब्याज लगेगा
      7. ब्याज मुक्त अवधि:
        आमतौर पर ये अवधि लगभग 40-50 दिन होती है, अगर आप इस अवधि में पूरा बिल चुका देते हैं तो आपको कोई अतिरिक्त ब्याज नहीं देना पड़ता।
      8. यदि भुगतान समय पर न हुआ:
        अगर आप पूरा या न्यूनतम बिल अंतिम तारीख तक नहीं चुका पाते, तो शेष राशि पर बैंक ब्याज वसूल करेगा।
      9. रिवॉर्ड और कैशबैक:
        कई क्रेडिट कार्ड कंपनियां आपको खर्च पर रिवॉर्ड पॉइंट्स, कैशबैक, छूट और ऑफर्स भी देती हैं। जैसे आपने कुछ खरीदारी की, तो आपको कुछ पैसे वापस मिल सकते हैं या पॉइंट्स जमा हो सकते हैं जिन्हें आप भविष्य में इस्तेमाल कर सकते हैं।
      10. कैश एडवांस:
        क्रेडिट कार्ड से आप एटीएम से नकद भी निकाल सकते हैं, लेकिन कैश एडवांस पर ब्याज तुरंत लगने लगता है जो बहुत अधिक होता है।

      इस प्रकार, क्रेडिट कार्ड आपको तुरंत खरीदारी की सुविधा देता है, लेकिन इसका सही इस्तेमाल महत्वपूर्ण है ताकि उधार में ब्याज न बढ़े और क्रेडिट स्कोर भी अच्छा बना रहे।