मुद्रा (Currency) कैसे काम करती है,देश की Economy पर करेंसी कैसे प्रभाव डालती है?

करेंसी (जैसे भारत में रुपया, अमेरिका में डॉलर) एक तरह का विश्वास-पत्र है।

करेंसी (जैसे रुपया, डॉलर या यूरो) एक देश का पैसा होता है। ये सरकार या केंद्रीय बैंक (जैसे भारत में RBI) द्वारा बनाई और जारी की जाती है

किसी देश की करेंसी (मुद्रा) कैसे काम करती है? –

मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था में लेन-देन का सबसे मुख्य साधन होती है।

  • मुद्रा का काम है सामान या सेवाओं के बदले में भुगतान करना। यानी बाजार में कोई चीज़ खरीदनी हो तो नोट या सिक्के (मुद्रा) देकर उसे खरीदा जाता है।
  • सरकार या केंद्रीय बैंक (जैसे भारत में RBI) मुद्रा छापती है और उसकी कीमत तय करती है। यह कीमत दूसरे देशों की मुद्रा के मुकाबले बदलती रहती है।

खरीद-बिक्री के लिए: लोग इसे दुकानों पर सामान खरीदने, सैलरी लेने या व्यापार करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। ये एक “मीडियम ऑफ एक्सचेंज” है, यानी दो चीजें बदलने की बजाय पैसा इस्तेमाल करके आसानी से ट्रांजेक्शन होता है। यह चीजों और सेवाओं को खरीदने और बेचने का सबसे आसान तरीका है। आप पैसे देकर सामान खरीदते हैं।

मूल्य का मापन: यह बताता है कि किसी चीज की कीमत कितनी है। जैसे, एक पेन ₹10 का है।

मूल्य कैसे तय होता है: करेंसी की वैल्यू दूसरे देशों की करेंसी से तुलना करके तय होती है। जैसे, 1 डॉलर = 88रुपये। ये वैल्यू बाजार में “फॉरेक्स मार्केट” में सप्लाई (कितना पैसा उपलब्ध है) और डिमांड (कितना लोग खरीदना चाहते हैं) से बदलती रहती है। अगर ज्यादा लोग डॉलर खरीदना चाहें, तो डॉलर महंगा हो जाता है।

डिजिटल और फिजिकल: आजकल ज्यादातर करेंसी डिजिटल होती है (बैंक अकाउंट में), लेकिन नोट और सिक्के भी चलते हैं। केंद्रीय बैंक इसे प्रिंट करके या डिजिटल तरीके से जारी करता है, लेकिन ज्यादा प्रिंट करने से वैल्यू कम हो सकती है।

भविष्य के लिए बचाना: लोग इसे बचाकर रखते हैं ताकि भविष्य में इसका इस्तेमाल कर सकें।

सरकार और केंद्रीय बैंक का नियंत्रण: देश की सरकार (जैसे भारत में RBI) ही यह तय करती है कि कितनी करेंसी छापनी है और उसे कैसे मैनेज करना है।

करेंसी एक ऐसा माध्यम है जिस पर देश के सभी लोगों को भरोसा होता है कि इसके बदले में उन्हें चीजें मिलेंगी।

मुद्रा की स्थिरता क्या है और कैसे तय होती है?

करेंसी की स्थिरता का मतलब है कि उसकी कीमत (दूसरे देशों की करेंसी के मुकाबले) बहुत ज्यादा न बदले। यह मुख्य रूप से डिमांड (मांग) और सप्लाई (आपूर्ति) के सिद्धांत पर तय होती है, जिसे विनिमय दर (Exchange Rate) कहते हैं।

  • मुद्रा की स्थिरता मतलब उसकी कीमत में तेज़ उछाल या गिरावट न आना।
  • अगर आज 1 डॉलर = ₹88 है, तो ये बुरी तरह बदलती न रहे, तभी मुद्रा “स्थिर” मानी जाएगी।
  • मुद्रा स्थिर रखने के लिए देश की सरकार और केंद्रीय बैंक कई उपाय करते हैं, जैसे ब्याज दर जोड़ना, विदेशी मुद्रा भंडार संभालना, बाज़ार में मुद्रा की मात्रा बढ़ाना या घटाना।

डिमांड (मांग): अगर कोई देश आर्थिक रूप से मजबूत है और लोग उसका सामान या उसकी संपत्ति खरीदना चाहते हैं, तो उन्हें उस देश की करेंसी चाहिए होगी। मांग बढ़ेगी तो करेंसी मजबूत होगी।

सप्लाई (आपूर्ति): अगर सरकार बहुत ज्यादा करेंसी छाप देती है, तो उसकी सप्लाई बढ़ जाती है। सप्लाई बढ़ेगी तो करेंसी कमजोर होगी।

उदाहरण: जब किसी अमेरिकी कंपनी को भारत में निवेश करना होता है, तो उसे डॉलर के बदले रुपया चाहिए होता है, जिससे रुपये की मांग बढ़ती है और वह मजबूत होता है।

मुख्य तरीका: इंटरेस्ट रेट (ब्याज दर) बदलना। अगर महंगाई बढ़े, तो ब्याज बढ़ाकर पैसे की सप्लाई कम करते हैं, ताकि लोग कम उधार लें और खर्च कम करें।

अन्य तरीके: करेंसी रिजर्व (विदेशी पैसा रखना), ट्रेड बैलेंस (निर्यात-आयात संतुलन) और आर्थिक नीतियां। स्थिरता अच्छी हो तो लोग भरोसा करते हैं, निवेश बढ़ता है।

देश की इकोनॉमी पर करेंसी कैसे प्रभाव डालती है?

करेंसी का मजबूत या कमजोर होना अर्थव्यवस्था पर सीधा असर डालता है

करेंसी इकोनॉमी का बड़ा हिस्सा है। ये दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं – जैसे चक्र (सर्कल)।

  • मजबूत करेंसी के फायदे/नुकसान:
    1. फायदा: आयात सस्ता होता है (जैसे तेल, मशीनरी सस्ती), महंगाई कम रहती है। विदेशी निवेश आता है।
    2. नुकसान: निर्यात महंगा हो जाता है (विदेशी खरीदार कम खरीदते), फैक्टरियां बंद हो सकती हैं, बेरोजगारी बढ़ सकती है।
  • कमजोर करेंसी के फायदे/नुकसान:
    • फायदा: निर्यात सस्ता, ज्यादा बिक्री, इकोनॉमी ग्रोथ। टूरिस्ट ज्यादा आते हैं।
    • नुकसान: आयात महंगा (पेट्रोल, इलेक्ट्रॉनिक्स), महंगाई बढ़ती है, विदेशी निवेश भागता है।
  • कुल प्रभाव: करेंसी इकोनॉमी को बैलेंस रखती है। अगर बहुत मजबूत हो, तो ग्रोथ रुक सकती है; बहुत कमजोर हो, तो गरीबी बढ़ सकती है। सरकार इसे कंट्रोल करके रोजगार, महंगाई और ग्रोथ संभालती है। उदाहरण: चीन की कमजोर युआन से निर्यात बढ़ा, इकोनॉमी तेज चली।
  • कमजोर मुद्रा से मूल्यवृद्धि (महंगाई) बढ़ सकती है, क्योंकि बाहर से खरीदना महंगा पड़ता है।
  • अर्थव्यवस्था में निवेश (Investment) और व्यापार (Trade) भी मुद्रा की स्थिति पर निर्भर करता है।

मुद्रा को कौन से कारण प्रभावित करते हैं?

करेंसी की वैल्यू ऊपर-नीचे होने के कई कारण होते हैं।

  • इंटरेस्ट रेट: अगर किसी देश में ब्याज ज्यादा हो, तो विदेशी निवेशक अपना पैसा वहां लाते हैं, करेंसी मजबूत होती है।
  • महंगाई (इन्फ्लेशन): ज्यादा महंगाई से करेंसी की खरीदने की ताकत कम होती है, वैल्यू गिरती है।
  • आर्थिक विकास (GDP ग्रोथ): तेज विकास से करेंसी मजबूत, क्योंकि लोग ज्यादा कमाते हैं और निवेश आता है।
  • राजनीतिक स्थिरता: चुनाव, युद्ध या भ्रष्टाचार से भरोसा कम होता है, करेंसी गिरती है।
  • ट्रेड बैलेंस: ज्यादा निर्यात (बेचना) से करेंसी मजबूत, ज्यादा आयात (खरीदना) से कमजोर।
  • वैश्विक घटनाएं: जैसे तेल की कीमतें बढ़ना (भारत जैसे आयातक देशों के लिए बुरा) या महामारी।
  • स्पेकुलेशन: बड़े निवेशक बाजार में सट्टा लगाते हैं, वैल्यू अचानक बदल जाती है।
  • देश की अर्थव्यवस्था (Economy): जितना मज़बूत व्यापार और उत्पादन होगा, मुद्रा भी उतनी मजबूत रहेगी।
  • रोजगार और औद्योगिक उत्पादन: ज्यादा रोजगार और ज्यादा उत्पादन से मुद्रा मजबूत होती है।
  • विदेशी मुद्रा भंडार: देश के पास जितना ज्यादा डॉलर या दूसरी विदेशी मुद्रा होगी, उसकी मुद्रा उतनी सुरक्षित रहेगी।

विश्व करेंसी में कोई देश कैसे डोमिनेट करता है?

विश्व करेंसी पर किसी देश का हावी होना उसकी आर्थिक शक्ति और भरोसे पर निर्भर करता है। अमेरिका का डॉलर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। दुनिया में कुछ करेंसी “रिजर्व करेंसी” कहलाती हैं, यानी दूसरे देश इन्हें बचत के लिए रखते हैं। अमेरिका का डॉलर सबसे बड़ा डोमिनेटर है (60% से ज्यादा वैश्विक ट्रेड डॉलर में)।

  • बड़ी इकोनॉमी: अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है (GDP 25 ट्रिलियन डॉलर), भरोसा ज्यादा।
  • ट्रस्ट और स्थिरता: डॉलर की वैल्यू लंबे समय से स्थिर, अमेरिकी सरकार मजबूत।
  • ऑयल और ट्रेड: तेल हमेशा डॉलर में बिकता है (पेट्रोडॉलर), वैश्विक व्यापार डॉलर पर निर्भर।
  • इतिहास: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रेटन वुड्स समझौते से डॉलर गोल्ड स्टैंडर्ड बना, फिर रिजर्व।
  • फाइनेंशियल सिस्टम: , आसान ट्रांजेक्शन।
  • अमेरिका का वैश्विक प्रभुत्व ज्यादा है क्योंकि वह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और उसकी मुद्रा (डॉलर) में अन्य देश लेन-देन करते हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र: अगर वह देश एक बड़ा वित्तीय केंद्र है (जैसे न्यूयॉर्क, लंदन), जहां पैसा आसानी से ट्रांसफर किया जा सकता है, तो उसकी करेंसी हावी हो जाती है।
  • इसके अलावा कुछ देशों की मुद्रा भी प्रचलित हैं जैसे यूरोप का यूरो (Euro), ब्रिटेन का पाउंड (Pound), जापान का येन (Yen)।

जो देश अपनी करेंसी में ज्यादा व्यापार और विश्वसनीयता बना लेते हैं, वे विश्व करेंसी पर हावी हो जाते हैं।

अगर भारत अमेरिका से मोबाइल खरीदता है, तो भुगतान डॉलर में होता है।
इसलिए भारत को डॉलर की ज़रूरत होती है — और वो निर्यात (export) बढ़ाता है ताकि माल बेचकर डॉलर कमा सके।
अगर रुपया कमज़ोर हो गया, तो भारत के लिए मोबाइल महंगे पड़ जाएंगे।

Dividend कंपनी की वैल्यूएशन Valuationऔर ग्रोथ Growthको समझने में कैसे मदद करता है?

पहले, डिविडेंड को आसान शब्दों में समझते हैं। कंपनी जब अच्छा मुनाफा कमाती है, तो वह अपना कुछ पैसा शेयरधारकों (जिनके पास कंपनी के शेयर हैं) को देती है। इसे ही डिविडेंड कहते हैं। यह आमतौर पर नकद (cash) में दिया जाता है। ये पैसे हर शेयर पर थोड़े-थोड़े मिलते हैं, जैसे सालाना बोनस। उदाहरण: अगर कंपनी 10 रुपये प्रति शेयर डिविडेंड देती है, तो आपके 100 शेयरों पर 1000 रुपये मिलेंगे।

डिविडेंड (Dividend) एक कंपनी के मूल्यांकन (Valuation) और उसकी ग्रोथ (Growth) को समझने में कैसे मदद करता है,

कंपनी के मूल्यांकन (Valuation) में कैसे मदद करता है?

1.Dividend Discount Model (DDM): यह एक बहुत ही प्रसिद्ध तरीका है जिसका उपयोग करके निवेशक किसी कंपनी के शेयर का सही मूल्य (intrinsic value) निकालते हैं।

  • इस मॉडल का सिद्धांत यह है कि किसी शेयर का मूल्य उसके भविष्य में मिलने वाले सभी डिविडेंड्स के वर्तमान मूल्य (Present Value) के बराबर होता है।
  • अगर कोई कंपनी लगातार और बढ़ते हुए डिविडेंड देती है, तो DDM के हिसाब से उसकी Valuation भी अधिक होगी।
  • निवेशक उन कंपनियों को ज़्यादा महत्व देते हैं जो भविष्य में अच्छा डिविडेंड ग्रोथ (dividend growth) बनाए रखने की उम्मीद रखती हैं।
 शेयर की कीमत = भविष्य के सभी डिविडेंड का आज का मूल्य।

2.financial stable outlook: जो कंपनी लगातार और स्थिर डिविडेंड देती है, वह यह दर्शाती है कि उसके पास स्थिर और अनुमानित मुनाफा (stable and predictable earnings) है। यह निवेशकों का विश्वास बढ़ाता है और कंपनी की वैल्यूएशन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।अगर डिविडेंड कम या अनिश्चित है, तो वैल्यूएशन नीचे गिरती है।

3.Dividend And Share Price:जब कंपनी डिविडेंड देती है, तो उसके शेयर की कीमत एक्स-डिविडेंड डेट पर लगभग उतनी कम हो जाती है जितना डिविडेंड दिया गया है। यानी अगर ITC का शेयर ₹335 है और ₹5 डिविडेंड देता है, तो एक्स-डिविडेंड पर शेयर ₹330 के आसपास जा सकता है, क्योंकि कंपनी वो पैसा shareholders को दे चुकी है ।

  1. Dividend Discount Model (DDM): यह एक बहुत ही प्रसिद्ध तरीका है जिसका उपयोग करके निवेशक किसी कंपनी के शेयर का सही मूल्य (intrinsic value) निकालते हैं।
    • इस मॉडल का सिद्धांत यह है कि किसी शेयर का मूल्य उसके भविष्य में मिलने वाले सभी डिविडेंड्स के वर्तमान मूल्य (Present Value) के बराबर होता है।
    • अगर कोई कंपनी लगातार और बढ़ते हुए डिविडेंड देती है, तो DDM के हिसाब से उसकी Valuation भी अधिक होगी।
    • निवेशक उन कंपनियों को ज़्यादा महत्व देते हैं जो भविष्य में अच्छा डिविडेंड ग्रोथ (dividend growth) बनाए रखने की उम्मीद रखती हैं।
  2. वित्तीय स्थिरता का संकेत: जो कंपनी लगातार और स्थिर डिविडेंड देती है, वह यह दर्शाती है कि उसके पास स्थिर और अनुमानित मुनाफा (stable and predictable earnings) है। यह निवेशकों का विश्वास बढ़ाता है और कंपनी की वैल्यूएशन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
  3. डिविडेंड से पीई रेशियो कैसे जुड़ा है? : डिविडेंड कंपनी के मुनाफे (EPS) का एक हिस्सा होता है जो शेयरधारकों को मिलता है। पीई रेशियो डिविडेंड के जरिए समझना आसान हो जाता है क्योंकि ये बताता है कि कंपनी मुनाफे का कितना हिस्सा डिविडेंड में बांट रही है।
डिविडेंड यील्ड (Dividend Yield) = प्रति शेयर डिविडेंड ÷ शेयर की कीमत। (ये बताता है कि शेयर से कितना % रिटर्न डिविडेंड से मिलेगा।)
पेआउट रेशियो (Payout Ratio) = कुल डिविडेंड ÷ कुल मुनाफा (EPS)। (ये दिखाता है कि कंपनी मुनाफे का कितना % डिविडेंड दे रही है।)
पीई रेशियो = पेआउट रेशियो ÷ डिविडेंड यील्ड।

इससे क्या पता चलता है-

  • अगर कंपनी ज्यादा डिविडेंड देती है (हाई पेआउट), तो पीई कम हो सकता है (शेयर सस्ता लगे)।
  • अगर डिविडेंड कम है (कंपनी ग्रोथ पर पैसे लगा रही), तो पीई ज्यादा हो सकता है (शेयर महंगा लगे, लेकिन ग्रोथ की उम्मीद)।

4. P/E Ratio समझने में डिविडेंड कैसे मदद करता है?

  • ग्रोथ vs वैल्यू: हाई डिविडेंड वाली कंपनी का कम पीई मतलब वैल्यू स्टॉक (सुरक्षित, लेकिन कम ग्रोथ)। लो डिविडेंड + हाई पीई = ग्रोथ स्टॉक (तेज बढ़ोतरी की उम्मीद)।
  • निवेश का फैसला: डिविडेंड से पता चलता है कंपनी कितना “ट्रस्टवर्थी” है। अगर पीई हाई है लेकिन डिविडेंड स्थिर, तो शेयर ओवरवैल्यूड हो सकता है।
  • तुलना: दो कंपनियों की तुलना में डिविडेंड देखें – जो ज्यादा डिविडेंड दे और पीई कम रखे, वो बेहतर डील।

संक्षेप में, डिविडेंड पीई को “रियल” बनाता है – ये बताता है कि हाई पीई असल में मुनाफे पर कितना रिटर्न देगा। हमेशा इंडस्ट्री एवरेज पीई से कंपेयर करें!

कंपनी की ग्रोथ (Growth) को समझने में कैसे मदद करता है?

1.नई और तेज़ी से बढ़ने वाली (Growth) कंपनियाँ: अक्सर कम या कोई डिविडेंड नहीं देती हैं। वे अपना सारा मुनाफा रिसर्च, डेवलपमेंट और बिज़नेस के विस्तार में लगाती हैं, क्योंकि उनके पास उच्च विकास के अवसर (high growth opportunities) होते हैं। यह संकेत देता है कि कंपनी की प्राथमिकता ग्रोथ है।

2.Growth vs. Payout: डिविडेंड की राशि से पता चलता है कि कंपनी अपने मुनाफे का कितना हिस्सा शेयरधारकों को दे रही है और कितना हिस्सा कंपनी के अंदर वापस निवेश (reinvest) कर रही है।

 3.Growth Factor:कभी-कभार कंपनी कम या ना के बराबर डिविडेंड देती है क्योंकि वो अपने मुनाफे को बिज़नेस में फिर से लगाना चाहती है ताकि और बड़ा ग्रोथ पा सके। इससे पता चलता है कि कंपनी future growth ko ज़्यादा importance दे रही है और पैसा बचा रही है ।

  • स्थिर डिविडेंड: मतलब कंपनी की ग्रोथ स्थिर है, कोई बड़ा उतार-चढ़ाव नहीं। जैसे पुरानी कार जो हमेशा चलती है।
  • बढ़ता डिविडेंड: ये दिखाता है कि कंपनी तेजी से बढ़ रही है, मुनाफा ज्यादा हो रहा है। निवेशक खुश होते हैं, शेयर खरीदते हैं।
  • कम या ना मिलना: ग्रोथ धीमी है या कंपनी पैसे नए प्रोजेक्ट में लगा रही है (जो रिस्की हो सकता है)।

उदाहरण: ITC जैसी कंपनी सालों से डिविडेंड बढ़ा रही है, जो बताता है कि उसकी ग्रोथ मजबूत है। इससे समझ आता है कि कंपनी भविष्य में कितनी मजबूत बनेगी।

डिविडेंड और कौन-कौन से फैक्टर समझने में मदद करता है?

1.प्रॉफिटेबिलिटी (मुनाफाखोरी): ज्यादा डिविडेंड मतलब कंपनी अच्छा मुनाफा कमा रही है। अगर मुनाफा कम हो, तो डिविडेंड कट जाता है।

2.कैश फ्लो (नकदी प्रवाह): डिविडेंड देने के लिए कंपनी के पास नकद पैसे होने चाहिए। ये दिखाता है कि कंपनी की फाइनेंशियल हेल्थ अच्छी है या नहीं।

3.मैनेजमेंट का कॉन्फिडेंस (प्रबंधन का आत्मविश्वास): अगर मैनेजमेंट डिविडेंड बढ़ाता है, तो ये संकेत है कि वे कंपनी के भविष्य पर भरोसा करते हैं।

4.कंपनी की मैच्योरिटी (परिपक्वता): नई स्टार्टअप कंपनियां डिविडेंड कम देती हैं (ग्रोथ पर फोकस), लेकिन पुरानी कंपनियां ज्यादा देती हैं। इससे पता चलता है कंपनी कितनी “बड़ी” हो चुकी है।

5.रिस्क लेवल: लगातार डिविडेंड = कम रिस्क। अगर डिविडेंड अचानक बंद हो, तो रिस्क ज्यादा।

6.डिविडेंड यील्ड (Dividend Yield):

  • सूत्र: Dividend Yield=Current Share PriceAnnual / Dividend Per Share​
  • यह बताता है कि शेयर की मौजूदा कीमत पर आपको डिविडेंड से कितना प्रतिशत रिटर्न मिल रहा है। यह एक निवेशक के लिए नियमित आय (Regular Income) का एक अच्छा मापदंड है।

7.डिविडेंड पेआउट अनुपात (Dividend Payout Ratio):

  • सूत्र: Dividend Payout Ratio=Net Income (Profit) / Total Dividends Paid​
  • यह अनुपात बताता है कि कंपनी अपने कुल मुनाफे का कितना प्रतिशत डिविडेंड के रूप में बांट रही है।
    • कम पेआउट रेशियो (Low Payout Ratio): दिखाता है कि कंपनी के पास डिविडेंड देने के बाद भी भविष्य की ग्रोथ के लिए पर्याप्त नकदी (sufficient cash) बची हुई है।
    • अत्यधिक उच्च पेआउट रेशियो (Very High Payout Ratio): चेतावनी का संकेत हो सकता है, क्योंकि इसका मतलब है कि कंपनी अपने मुनाफे का ज़्यादातर हिस्सा बांट रही है, जो भविष्य में कंपनी की वित्तीय स्थिरता को प्रभावित कर सकता है।

Equity शेयर्स क्या हैं, Stock Market में इक्विटी शेयर के कितने प्रकार हैं?

Equity Share मतलब कंपनी का “हिस्सा”

Equity Share का मतलब है कंपनी में हिस्सेदारी। जब आप किसी कंपनी का इक्विटी शेयर खरीदते हैं, तो आप उस कंपनी के कुछ हद तक मालिक (Shareholder/अंशधारक) बन जाते हैं। इसे साधारण शेयर (Ordinary Share) भी कहा जाता है।

कल्पना कीजिए – एक कंपनी (जैसे कोई दुकान या फैक्टरी) को बड़ा काम शुरू करने के लिए बहुत सारा पैसा चाहिए।

वो बैंक से लोन नहीं लेना चाहती, क्योंकि लोन तो चुकाना पड़ता है ब्याज के साथ। इसके बजाय, कंपनी सोचती है: “मैं अपने कुछ हिस्से (ownership) बेच दूं लोगों को, और बदले में पैसा लूं।” ये हिस्से ही Equity शेयर कहलाते हैं।

मुख्य इक्विटी शेयर के प्रकार –

शेयर दो मुख्य प्रकार के होते हैं: सामान्य शेयर or इक्विटी शेयर (Common Shares/Ordinary Shares) और प्रेफरेंस शेयर

1.सामान्य शेयर (Common Shares/Ordinary Shares) – वो शेयर हैं जो कंपनी के सच्चे मालिकाना हक देते हैं।

  • अगर कंपनी बंद हो जाए, तो बाकी पैसे बांटने में इक्विटी शेयरधारक सबसे आखिर में पाते हैं (पहले कर्ज चुकता करना पड़ता है)।
  • आप कंपनी के फैसलों में वोट दे सकते हैं (जैसे बोर्ड मीटिंग में)।
  • कंपनी का मुनाफा हो तो आपको डिविडेंड (लाभांश) मिल सकता है, लेकिन ये गारंटी नहीं – बोर्ड तय करता है।
इक्विटी शेयर = कंपनी का "सामान्य हिस्सा"। ज्यादातर लोग यही खरीदते हैं स्टॉक मार्केट में।

2.प्रेफरेंस शेयर (Preference Shares/Preferred Shares) – जिन्हें प्रेफर्ड स्टॉक (Preferred Stock) या वरीयता शेयर भी कहा जाता है, एक विशेष प्रकार की कंपनी की हिस्सेदारी (इक्विटी) होती है, जिसके शेयरधारकों को सामान्य शेयरधारकों (Common Shareholders) की तुलना में कुछ मामलों में प्राथमिकता (Preference/वरीयता) मिलती है।

  • विशेष अधिकार: इन्हें सामान्य शेयरधारकों से कुछ मामलों में प्राथमिकता (Preference) मिलती है।
  • लाभांश: इन्हें सामान्य शेयरधारकों से पहले और एक तय दर पर लाभांश (Dividend) मिलता है।
  • भुगतान में प्राथमिकता: अगर कंपनी बंद होती है, तो इन्हें सामान्य शेयरधारकों से पहले अपनी निवेश की गई पूंजी वापस पाने का अधिकार होता है।
  • अधिकार: इन्हें आमतौर पर कंपनी के फैसलों में वोट देने का अधिकार नहीं होता है।
  • रिटर्न: इनके रिटर्न की दर लगभग तय होती है, इसलिए इनमें पूंजी बढ़ने (Capital Appreciation) की संभावना सामान्य शेयरों की तरह अधिक नहीं होती।

कुछ इक्विटी शेयरों को शेयर पूंजी के प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है-

1. अधिकृत शेयर पूंजी (Authorised Share Capital) –यह पूंजी की वह अधिकतम राशि है जो कंपनी जारी कर सकती है। इसे समय-समय पर बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए, एक कंपनी को कुछ औपचारिकताओं के अनुरूप होना चाहिए और कानूनी संस्थाओं को आवश्यक शुल्क भी देना होगा।

उदाहरण: अगर किसी कंपनी का अधिकृत कैपिटल ₹10 लाख है, तो वह 1 लाख शेयर (₹10 प्रति शेयर) जारी कर सकती है

2. जारी की गई शेयर पूंजी (Issued Share Capital) – यह अधिकृत पूंजी का हिस्सा है जो एक कंपनी अपने निवेशकों को प्रदान करती है।

  • यह वह हिस्सा है, जो कंपनी ने इन्वेस्टर्स को ऑफर किया है, यानी, वास्तव में कितने शेयर मार्केट में निकाले गए हैं।
  • उदाहरण: ऊपर वाली कंपनी ने 1 लाख में से 60,000 शेयर जारी किए, तो यही उसकी issued share capital है।

3. सब्सक्राइब्ड शेयर पूंजी (Subscribed Share Capital) – सब्सक्राइब किए गए पूंजी के हिस्से को संदर्भित करता है जिसके लिए निवेशक भुगतान करते हैं। चूंकि ज्यादातर कंपनियां एक ही समय में पूरी सदस्यता राशि स्वीकार करती हैं, जारी की गई, सब्सक्राइब की गई, और भुगतान पूंजी एक ही बात होती है।

  • इसमें से जितने शेयर इन्वेस्टर्स/पब्लिक ने खरीद लिए, वे भाग सब्सक्राइब्ड कहलाते हैं।
  • उदाहरण: अगर 60,000 में से 50,000 पब्लिक ने खरीदे, तो यह सब्सक्राइब्ड हुआ।

4. पेड-अप शेयर पूंजी (Paid Up Capital)

  • सब्सक्राइब किए गए शेयरों पर जितना पैसा कंपनी को मिल गया है, वह paid up capital है।
  • यह लगभग हमेशा subscribed capital के बराबर, या थोड़ा कम हो सकता है।

5. बोनस शेयर (Bonus Shares) -कभी-कभी, कंपनियां अपने शेयरधारकों को डिवीडेंड के रूप में शेयर जारी कर सकती हैं। ऐसे शेयरों को बोनस शेयर कहा जाता है।

  • जब कंपनी अपने पुराने शेयरहोल्डर्स को फ्री में शेयर देती है, तो उसे बोनस शेयर कहा जाता है।
  • यह कंपनी के रिजर्व से दिए जाते हैं, कंपनी के कैश फ्लो को प्रभावित नहीं करते।
  • उदाहरण: कंपनी कहती है 1:1 बोनस यानी 1 शेयर पर 1 बोनस फ्री।

6. राइट्स शेयर (Right Shares) – इन शेयरों के प्रकार हैं जो कंपनी अपने मौजूदा निवेशकों को जारी करती है। ऐसे स्टॉक मौजूदा शेयरधारकों के स्वामित्व अधिकारों की रक्षा के लिए जारी किए जाते हैं।

  • ये खास ऑफर होते हैं, जब कंपनी अपने मौजूदा शेयरधारकों को प्रिफरेंशियल बेसिस पर नए शेयर खरीदने का मौका देती है, आमतौर पर डिस्काउंट पर।
  • इससे पुराने शेयरधारकों के अधिकार सुरक्षित रहते हैं।

7. स्वेट इक्विटी शेयर (Sweat Equity Shares) -जब कर्मचारी या निदेशक अपनी भूमिका असाधारण रूप से अच्छी तरह से करते हैं, तो उन्हें पुरस्कृत करने के लिए स्वेट इक्विटी शेयर जारी किए जाते हैं।

  • ये शेयर कंपनी के खास कर्मचारियों या डायरेक्टर्स को एक्स्ट्रा कॉन्ट्रीब्यूशन (जैसे – एक्स्ट्रा मेहनत, आइडिया, टेक्निकल स्किल) के लिए दिए जाते हैं।
  • यह आमतौर पर कंपनी के कैश पेमेंट के बजाय इन रिवॉर्ड्स के रूप में जारी किए जाते हैं।

निवेश में एंकरिंग प्रभाव (Anchoring Effect) क्या है, कैसे काम करता है?

जब हम कोई फैसला लेते हैं, तो अक्सर हम पहली जानकारी या आंकड़े को ही आधार बना लेते हैं। यही जानकारी हमारे दिमाग में “एंकर” बन जाती है।

Anchoring effect (एंकरिंग इफेक्ट) या एंकरिंग बायस निवेश (Investing) में एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक ग़लती है,सबसे पहली मिली जानकारी पर बहुत ज़्यादा निर्भर हो जाते हैं। यह शुरुआती जानकारी, जिसे एंकर कहा जाता है जिसमें निवेशक (Investor) किसी एक पुराने नंबर या कीमत (जैसे कि शेयर खरीदते वक्त की प्राइस या 52 वीक हाई/लो) को मन में “एंकर” बना लेता है इसके बाद हम बाकी सब चीजों को उसी एंकर के हिसाब से तौलते हैं — चाहे वो जानकारी सही हो या गलत।

निवेश में एंकरिंग कैसे काम करता है?

जब कोई निवेशक किसी शेयर को ₹400 में खरीदता है और वह शेयर गिरकर ₹200 पर आ जाता है, तो उस निवेशक को बार-बार यही लगता है कि यह शेयर फिर से ₹400पर चला जाएगा। इसी सोच में वह नुकसान में भी शेयर को बेचता नहीं है—क्योंकि उसके मन में क़ीमत का “एंकर” ₹400 बसा हुआ है,

लेकिन, हो सकता है कि शेयर की कीमत किसी अच्छे कारण से गिरी हो, और अब ₹400की कीमत का कोई मतलब न हो। एंकरिंग इफ़ेक्ट की वजह से आप एक ऐसे घाटे वाले शेयर को पकड़े रह सकते हैं, इस उम्मीद में कि वह अपनी पिछली ऊंचाई पर वापस जाएगा। या फिर, आप किसी शेयर को इसलिए खरीद सकते हैं क्योंकि वह उसकी पिछली कीमत की तुलना में ‘सस्ता’ लग रहा है। जबकि कंपनी के फ़ंडामेंटल या मार्केट के हालात अब बदल सकते हैं |

निवेश में एंकरिंग कैसे दिखती है?

1. पुरानी कीमत को पकड़ना

मान लीजिए आपने टाटा मोटर्स का शेयर ₹600 में देखा था। अब वो ₹500 पर है। आप सोचते हैं — “सस्ता हो गया!” लेकिन हो सकता है कंपनी की हालत बिगड़ गई हो और ₹500 भी ज़्यादा हो। आप ₹600 को एंकर मानकर सोच रहे हैं — जबकि असली वैल्यू कुछ और हो सकती है।

2. लोगों की राय को एंकर बना लेना

अगर कोई एक्सपर्ट कहता है कि “ये शेयर ₹1000 तक जाएगा,” तो हम उस आंकड़े को पकड़ लेते हैं — और जब तक वो नहीं होता, बेचने का मन नहीं करता।

3. IPO में एंकरिंग

IPO में कंपनी कहती है कि शेयर की कीमत ₹150 है। लोग उसी को सही मान लेते हैं — जबकि असली वैल्यू ₹100 भी हो सकती है।

किसी कंपनी का पुराना प्राइस देखकर हम सोचते हैं कि अब ये सस्ता है, जबकि असली वैल्यू कुछ और हो सकती है।

इसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कैसे करें?

इस झुकाव को पहचानें: एंकरिंग इफ़ेक्ट का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करने का पहला कदम है कि आप इसे पहचानें।

बुनियादी बातों पर ध्यान दें: किसी शेयर की पुरानी कीमत पर निर्भर होने के बजाय, उसकी मौजूदा वित्तीय स्थिति, भविष्य में बढ़ने की संभावनाओं और बाज़ार में उसकी स्थिति का विश्लेषण करें।

एक योजना बनाएं: किसी भी शेयर को खरीदने से पहले, खरीदने और बेचने की एक साफ रणनीति तय करें। इससे आपको पुरानी कीमतों के आधार पर भावुक होकर फैसला लेने से बचने में मदद मिलेगी।

नए सिरे से सोचें: किसी स्टॉक का पुराना दाम भूलकर, आज की वैल्यू देखें। कंपनी की कमाई, बाजार ट्रेंड, और कंपटीटर को चेक करें।

कई स्रोतों से जानकारी लें: सिर्फ एक न्यूज या ब्रोकर की बात पर न अटकें। कई रिसर्च रिपोर्ट पढ़ें।

लक्ष्य करें: निवेश से पहले अपना टारगेट प्राइस तय करें, और एंकरिंग से बचने के लिए कैलकुलेटर या ऐप्स का इस्तेमाल करें।

समय दें: जल्दबाजी में फैसला न लें। कुछ दिन सोचें, ताकि एंकर कमजोर हो जाए।

इससे कैसे बचें?

  • फंडामेंटल्स देखें — कंपनी की असली हालत क्या है: कमाई, कर्ज, ग्रोथ।
  • भावनाओं से दूर रहें — “मैंने ₹X में खरीदा था” ये सोच छोड़ें।
  • नए नजरिए से सोचें — अगर आपके पास वो शेयर नहीं होता, तो क्या आप आज उसे खरीदते?
  • अगर लगता है कि कोई फ़ैसला सिर्फ़ एक पुराने “एंकर” की वजह से लिया जा रहा है, तो उसमें सुधार करें और फंडामेंटल्स, बिज़नेस ग्रोथ वग़ैरह पर ध्यान दें।

निष्कर्ष

“एंकरिंग वो चश्मा है जिससे हम दुनिया को देखते हैं — लेकिन कभी-कभी वो धुंधला होता है।”

Anchoring effect से बचने के लिए ज़रूरी है कि निवेश करते समय स्वभाविक सोच और रिसर्च का इस्तेमाल हो, पुराने नंबर या भाव को सिर्फ़ एक आंकड़ा समझें—न कि आख़िरी सच।

Basis Point (BPS) क्या है ,कैसे काम करता है ?

Question about basis points explained.
बेसिस पॉइंट (Basis Point) यानी बीपीएस (BPS) एक खास यूनिट है, जो फाइनेंस में ब्याज दर या रिटर्न जैसे प्रतिशत में होने वाले छोटे बदलाव को साफ-साफ समझाने के लिए इस्तेमाल की जाती है।

बेस पॉइंट्स (BPS), जिसे हम ‘बिप्प्स’ भी कहते हैं, एक बहुत ही आसान तरीका है छोटे-छोटे बदलावों को मापने का, खासकर जब बात प्रतिशत (percentage) की हो।

जब हम बहुत छोटी संख्याओं या बदलावों के बारे में बात करते हैं, तो प्रतिशत का उपयोग करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। जैसे, अगर कोई कहे कि ब्याज दर 0.05% बढ़ गई, तो यह उतना साफ नहीं लगता। लेकिन अगर यही बात हम बेस पॉइंट्स में कहें, तो यह बहुत आसान हो जाता है।

ये एक छोटा प्रतिशत होता है, जो वित्त (finance) की दुनिया में बहुत काम आता है

बेसिस पॉइंट का वैल्यू (Value) क्या है?

1 %प्रतिशत = 100 बेसिस पॉइंट

मतलब, अगर कोई चीज 1% बढ़े, तो वह 100 बेसिस पॉइंट बढ़ी।

1 बेसिस पॉइंट = 0.01 प्रतिशत

यानी, यह प्रतिशत का एक सौवां हिस्सा है।

इसे बीपी, बीपीएस या बिप्स भी कहते हैं

उदाहरण से समझो

मान लो तुम्हारा बैंक लोन का ब्याज 10% है। अगर यह 10.5% हो जाए, तो बढ़ोतरी 0.5% की हुई।

अब, 0.5% को बेसिस पॉइंट में बदलो:

50 बेसिस पॉइंट (क्योंकि 0.01% = 1 BP, तो 0.5% = 50 BP)।

जैसे, “ब्याज 50 बेसिस पॉइंट बढ़ गया” – यह सुनकर तुरंत पता चल जाता है कि आधा प्रतिशत बढ़ा, बिना बड़े नंबरों में उलझे।

इसे कैसे समझें?

बेस पॉइंट्स को एक सिक्के की तरह समझिए। जैसे 100 पैसे मिलकर 1 रुपया बनाते हैं, उसी तरह 100 बेस पॉइंट्स मिलकर 1% बनाते हैं।

अगर कोई कहे कि “ब्याज दर में 50 बेस पॉइंट्स की कटौती हुई”, तो इसका मतलब है कि ब्याज दर में 0.50% की कमी हुई है।

  • 50 बेस पॉइंट्स = 50 * 0.01% = 0.50%

बेसिस पॉइंट कैलकुलेट करने का तरीका-

प्रतिशत बदलाव को 100 से गुणा करो।

  • उदाहरण: अगर ब्याज 9% से 9.75% हो गया, तो बदलाव = 0.75%।
  • अब, 0.75 × 100 = 75 बेसिस पॉइंट बढ़ा।

इस्तेमाल कहाँ होता है?

  • बैंक ब्याज या लोन: अगर RBI कहे कि ब्याज दर 25 बेसिस पॉइंट कम हो गई, तो समझो 0.25% कम हुई – घर का लोन सस्ता हो गया!
  • शेयर बाजार या बॉन्ड: वहाँ की कीमतें बहुत तेज बदलती हैं, तो छोटे बदलाव बताने के लिए BP यूज होता है। जैसे, “शेयर 10 BP गिरा” मतलब 0.1% गिरा।
  • सरकारी नीतियाँ: न्यूज में सुनोगे, “इंटरेस्ट रेट 50 BP बढ़ाया” – यह अर्थव्यवस्था को कंट्रोल करने के लिए होता है।
  • बीमा या निवेश: वहाँ भी जोखिम (रिस्क) मापने के लिए।
  • माइक्रो स्तर के बदलाव को बताने के लिए।
  • बॉन्ड मार्केट में : निवेशक बॉन्ड की कमाई (yield) को बीपीएस में मापते हैं
  • फीस और चार्जेस में: म्यूचुअल फंड या बैंक की फीस को भी बीपीएस में बताया जाता है

क्यों जरूरी है Basis Point?

  • सटीकता: छोटे-छोटे बदलाव को सही तरीके से बताने के लिए
  • भ्रम से बचाव: “1% बढ़ा” कहने से लोग कंफ्यूज़ हो सकते हैं, लेकिन “100 बीपीएस बढ़ा” कहने से साफ हो जाता है
  • सभी को एक जैसी भाषा में समझ आता है — चाहे बैंक वाला हो या निवेशक
  • बहुत छोटे प्रतिशत परिवर्तन (जैसे 0.25% या 0.5%) को जल्दी और साफ-साफ बताने के लिए।
  • निवेश, ब्याज दर के बदलने पर सही कैलकुलेशन और डिस्कशन करने के लिए

Credit Rating क्या होता है ,भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया भर की रेटिंग एजेंसी का आउटलुक

क्रेडिट रेटिंग एक तरह का "स्कोरकार्ड" होता है, जो किसी देश, कंपनी या व्यक्ति को उधार चुकाने की क्षमता के बारे में बताता है। 

अगर आपका रिपोर्ट कार्ड अच्छा है, मतलब आपको अच्छी ग्रेड मिली है, तो इसका मतलब है कि आप अपना उधार समय पर चुकाने की पूरी कोशिश करते हैं और बैंकों को आप पर भरोसा है। अगर रेटिंग खराब है, तो इसका मतलब है कि आपको उधार चुकाने में मुश्किल आ सकती है।सरल शब्दों में, यह बताता है कि क्या आप या आपका देश कर्ज (लोन) समय पर वापस कर पाएंगे या नहीं। यह रेटिंग AAA से लेकर D तक की ग्रेडिंग पर आधारित होती है – AAA सबसे अच्छा (बहुत सुरक्षित) और D सबसे खराब (डिफॉल्ट, यानी कर्ज न चुका पाना)।

 क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां इस काम के लिए स्पेशल कंपनी होती हैं, जैसे भारत में CIBIL, CRISIL, ICRA, CARE आदि ,दुनिया में कुछ बड़ी एजेंसियां हैं जो यह रेटिंग देती हैं:

  • Fitch
  • Moody’s
  • S&P (Standard & Poor’s)

क्रेडिट रेटिंग कैसे काम करती है?

  • जांच-पड़ताल: एजेंसी उस देश या कंपनी के आर्थिक डेटा को देखती है – जैसे GDP (कुल उत्पादन), कर्ज का बोझ, कमाई, सरकारी नीतियां, राजनीतिक स्थिरता आदि। भारत के मामले में, वे बजट, टैक्स कलेक्शन, विदेशी निवेश और महंगाई जैसी चीजें चेक करते हैं।
  • रिस्क का आकलन: वे सोचते हैं – “क्या यह देश कर्ज चुका पाएगा?” अगर अर्थव्यवस्था मजबूत है (जैसे अच्छी ग्रोथ, कम बेरोजगारी), तो ऊंची रेटिंग। अगर मुश्किलें हैं (जैसे ज्यादा कर्ज, युद्ध या महामारी), तो कम रेटिंग।
  • रिपोर्ट जारी: हर कुछ महीनों में वे “आउटलुक” या “रिव्यू” जारी करते हैं – स्टेबल (स्थिर), पॉजिटिव (सकारात्मक, सुधार की उम्मीद) या नेगेटिव (नकारात्मक, खतरा)। रेटिंग बदलने पर (अपग्रेड या डाउनग्रेड) पूरी दुनिया में खबर बन जाती है।
  • देश की आर्थिक स्थिति कैसी है?
  • सरकार कितना कर्ज ले रही है?
  • क्या सरकार समय पर कर्ज चुका रही है?
  • देश में राजनीतिक स्थिरता है या नहीं?
  • विदेशी निवेश कितना आ रहा है?

आउटलुक क्या होता है?

सिर्फ रेटिंग नहीं, “आउटलुक” भी दिया जाता है—तीन तरह के आउटलुक:

Positive (सुधर सकता है),

Stable (जैसा है वैसा रहेगा),

और Negative (गिर सकता है)

इसका इस्तेमाल निवेशक अंदाजा लगाने को करते हैं कि आने वाले समय में उस देश या कंपनी की हालत सुधरेगी या खराब होगी।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया की रेटिंग एजेंसियों का आउटलुक (सितंबर 2025 तक)

भारतीय अर्थव्यवस्था पर दुनिया भर की रेटिंग एजेंसी का भरोसा बढ़ाता जा रहा है.

जापान की रेटिंग एंड इन्वेस्टमेंट इंफॉर्मेशन (R&I) ने भारत की लॉन्ग टर्म सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड दिया है. ये साल 2025 में भारत को रेटिंग एजेसियों से मिला तीसरा अपग्रेड है. R&I ने क्रेडिट रेटिंग को ट्रिपल B (BBB) से अपग्रेड कर ट्रिपल B प्लस (BBB +) कर दिया है. इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर आउटलुक भी स्टेबल रखा है. इससे पहले इससे पहले S&P और मॉर्निंगस्टार DBRS भी भारत की आर्थिक स्थिति पर भरोसा जता चुके हैं. अगस्त 2025 में  S&P ने रेटिंग को ट्रिपल B माइनस (BBB-) से ट्रिपल B (BBB) और मई में मॉर्निंगस्टार DBRS ने ट्रिपल B Low ( BBB Low) से ट्रिपल B ( BBB) किया है.

क्या है रेटिंग में सुधार का मतलब ?

रेटिंग का मतलब है कि कोई देश अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने में कितना सक्षम है. इससे इन देशों में आर्थिक जोखिमों के स्तर का पता चलता है और इसी आधार पर निवेश या कर्ज का प्रवाह तय होता है. ट्रिपल B आमतौर पर निवेश योग्य रेटिंग मानी जाती है. रेटिंग जितनी अपग्रेड होती है वो देश उतना कम जोखिम वाला और उतना ही ज्यादा निवेश के योग्य माना जाता है ऐसे में कर्ज दरें घटती हैं और विदेशी निवेश बढता है जो आगे अर्थव्यवस्था को और मजबूती देता है

दुनिया की नजर में भारत –

भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है, लेकिन कुछ चुनौतियाँ भी हैं जैसे महंगाई, बेरोज़गारी और फिस्कल घाटा।

रेटिंग एजेंसियां भारत की नीतियों और सुधारों को लगातार देखती हैं।

अगर भारत सुधार करता है और कर्ज कम लेता है, तो रेटिंग बेहतर हो सकती है।

IMF, World Bank, ADB जैसी संस्थाएं भी भारत की ग्रोथ को 6.3% से 6.9% तक मान रही हैं

भारत कैसे सुधार कर रहा है?

  • GST सुधार और टैक्स सिस्टम को आसान बनाया गया।
  • मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत जैसी योजनाओं से घरेलू उत्पादन बढ़ा।
  • बुनियादी ढांचे में निवेश – सड़कें, रेलवे, बंदरगाह आदि।
  • नियमों को सरल किया गया ताकि विदेशी निवेशक आसानी से व्यापार कर सकें।

CPI (Consumer Price Index )क्या होता है, अर्थव्यवस्था को समझने में कैसे मदद करता है |

CPI यानी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक एक ऐसा उपकरण है जो महंगाई (इन्फ्लेशन) को मापता है। यह बताता है कि रोजमर्रा की चीजें और सेवाएं जैसे खाना, कपड़े, घर का किराया, पेट्रोल, दवाइयां आदि की कीमत समय के साथ कितनी बढ़ रही है या घट रही है। यह आम आदमी (उपभोक्ताओं) के लिए बनाया गया सूचकांक है, जो उनके खर्चों पर फोकस करता हैऔर शहरी उपभोक्ताओं द्वारा खरीदे जाने वाले उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं की एक टोकरी की कीमतों में औसत बदलाव को ट्रैक करता है।

यह महंगाई को मापने के लिए एक प्रमुख संकेतक है। जब CPI बढ़ता है, तो इसका मतलब है कि लोगों को समान वस्तुएं और सेवाएं खरीदने के लिए अधिक खर्च करना पड़ता है, जिससे उनकी क्रय शक्ति (purchasing power) कम हो जाती है।

यह सरकार और अर्थशास्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था की सेहत को दिखाता है।

कैसे काम करता है?

CPI की गणना करने के लिए सरकार एक “बास्केट” तैयार करती है जिसमें रोज़मर्रा की चीज़ें और सेवाएँ शामिल होती हैं. हर बार इनकी कीमतें नोट की जाती हैं और वर्ष-दर-वर्ष/महीना दर महीना तुलना की जाती है. अगर इनकी कीमतें बढ़ती हैं तो CPI बढ़ जाता है, यानी महंगाई बढ़ रही है. अगर CPI घटे तो इसका मतलब कई चीज़ें सस्ती हो रही हैं, जो एक औसत परिवार के खर्च का प्रतिनिधित्व करती है। इस टोकरी में भोजन, कपड़े, परिवहन, चिकित्सा देखभाल और शिक्षा जैसी चीजें शामिल होती हैं।

  1. आधार वर्ष (Base Year) का चयन: एक आधार वर्ष तय किया जाता है, जिसके CPI को 100 माना जाता है।
  2. कीमतों का सर्वेक्षण: विभिन्न शहरों में उन टोकरी की वस्तुओं की कीमतों का मासिक या तिमाही सर्वेक्षण किया जाता है।
  3. सूचकांक की गणना: इन वर्तमान कीमतों की तुलना आधार वर्ष की कीमतों से की जाती है और एक सूचकांक (index) बनाया जाता है।

उदाहरण के लिए

यदि आधार वर्ष में टोकरी की कीमत ₹1,000 थी और अगले वर्ष वही टोकरी ₹1,100 की हो जाती है, तो CPI 110 हो जाएगा। इसका मतलब है कि महंगाई 10% बढ़ी है।

अर्थव्यवस्था को समझने में कैसे मदद करता है?

  • महंगाई को मापता है (इन्फ्लेशन ट्रैकिंग): अगर CPI बढ़ रहा है, तो महंगाई बढ़ रही है। यह बताता है कि पैसे की वैल्यू घट रही है (खरीदने की क्षमता कम हो रही है)। सरकार इससे देखकर ब्याज दरें बढ़ा सकती है या सब्सिडी दे सकती है।
  • वेतन और पेंशन समायोजित करने में: कंपनियां और सरकार CPI के आधार पर वेतन बढ़ाती हैं ताकि लोग महंगाई से निपट सकें। जैसे, महंगाई भत्ता (DA) CPI पर आधारित होता है।
  • आर्थिक नीतियां बनाने में: अगर CPI ज्यादा बढ़ रहा है (उच्च मुद्रास्फीति), तो अर्थव्यवस्था गर्म हो रही है – मतलब मांग सप्लाई से ज्यादा है। अगर कम है (डिफ्लेशन), तो अर्थव्यवस्था धीमी है। केंद्रीय बैंक जैसे RBI इससे देखकर मौद्रिक नीति बनाते हैं।
  • निवेश निर्णयों में: निवेशक CPI देखकर तय करते हैं कि कहां निवेश करें। उच्च CPI में सोना या प्रॉपर्टी अच्छा होता है।
  • नीति-निर्माण: सरकारें और केंद्रीय बैंक CPI का उपयोग अपनी आर्थिक नीतियों, जैसे मौद्रिक नीति (monetary policy) और राजकोषीय नीति (fiscal policy) को तय करने के लिए करते हैं।
  • क्रय शक्ति का निर्धारण: यह बताता है कि लोगों की क्रय शक्ति समय के साथ कैसे बदल रही है। जब महंगाई बढ़ती है, तो लोगों की वास्तविक आय (real income) कम हो जाती है।
  • आम इंसान CPI देखकर यह समझ जाता है कि उसकी आमदनी के मुकाबले जीवन की लागत कितनी बढ़ रही है और उसे बचत या खर्च करने का तरीका बदलना है या नहीं

CPI एक प्रकार का थर्मामीटर है जो बताता है कि अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें कितनी गर्म या ठंडी हैं, जिससे हमें महंगाई और लोगों की आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगता है।

क्यों ज़रूरी है CPI?

  • सरकार को पता चलता है कि लोगों की ज़िंदगी पर मंहगाई का कितना असर हो रहा है।
  • नीति बनाने में मदद मिलती है — जैसे सब्सिडी देना, टैक्स कम करना आदि।
  • निवेशक और बिज़नेस भी CPI देखकर अपने फैसले लेते हैं।

एकदम सरल उदाहरण –

अगर पिछले साल दूध ₹50 लीटर था और आज ₹54 लीटर है, तो दूध की कीमत 8% बढ़ गई. ऐसे ही बाकी चीज़ों को जोड़कर CPI बनाया जाता है, जिससे एक औसत निकलता है और पूरी महंगाई का अंदाजा होता है

Equity Capital क्या होता है और Balance Sheet में इक्विटी कैपिटल कैसे समझें?

ये वो पैसा है जो कंपनी के मालिक खुद लगाते हैं।

वो पैसा होता है जो किसी कंपनी के मालिक या शेयरधारक (shareholders) खुद लगाते हैं। यह दिखाता है कि कंपनी में उनका कितना ownership (मालिकी) है। इसे कंपनी का अपना पैसा भी कह सकते हैं, जो कर्ज (loan) से लिया गया पैसा नहीं होता। जब आप किसी कंपनी का शेयर खरीदते हैं, तो आप उस कंपनी के कुछ हिस्से के मालिक बन जाते हैं और जो पैसा आप लगाते हैं, वह इक्विटी कैपिटल का हिस्सा बन जाता है।

अगर कंपनी मुनाफा कमाती है, तो इन मालिकों को उसका फायदा (dividend या शेयर का दाम बढ़ना) मिलता है।

बैलेंस शीट में इक्विटी कैपिटल कहाँ दिखता है?

बैलेंस शीट में दो हिस्से होते हैं:
1.संपत्ति (Assets): कंपनी के पास क्या-क्या चीज़ है – जैसे जमीन, मशीन, कैश, आदि
2.देनदारी और पूंजी (Liabilities & Equity): कंपनी का कितना कर्ज है और मालिकों का कितना पैसा लगा हुआ 

Balance Sheet पर इक्विटी कैपिटल को कैसे समझें?

बैलेंस शीट एक तरह का financial snapshot (वित्तीय तस्वीर) होती है जो बताती है कि एक खास तारीख पर किसी कंपनी के पास क्या है (assets), उस पर क्या कर्ज है (liabilities), और उसका अपना पैसा कितना है (equity)।

जैसे तुम्हारे घर की डायरी में लिखा कि कितना सामान है, कितना कर्ज है, और कितना अपना पैसा बचा है।

बैलेंस शीट में इक्विटी कैपिटल को पढ़ते हैं तो हमें कई बातें पता चलती हैं

  • मालिकों का हिस्सा: इक्विटी कैपिटल बताता है कि कंपनी में मालिकों ने कितना अपना पैसा लगाया है। जैसे, अगर राम ने अपनी दुकान में 1 लाख रुपये लगाए, तो ये उसका हिस्सा है। इससे पता चलता है कि कंपनी कितनी अपने पैरों पर खड़ी है।
  • कंपनी की ताकत: ज्यादा इक्विटी का मतलब है कंपनी ज्यादा कर्ज पर निर्भर नहीं है। यानी कंपनी मजबूत है, क्योंकि मालिकों का पैसा ज्यादा है। कम इक्विटी और ज्यादा कर्ज हो तो कंपनी जोखिम में हो सकती है। तो इसका मतलब है कि वह अपने मालिक या शेयरधारकों के पैसे से ज़्यादा चलती है, न कि सिर्फ़ कर्ज़ से। एक बड़ी इक्विटी बेस वाली कंपनी ज़्यादा स्थिर और जोखिमों को झेलने में सक्षम मानी जाती है, क्योंकि उसे कर्ज़ चुकाने का उतना दबाव नहीं होता।
  • मुनाफा या घाटा: इक्विटी में बदलाव से पता चलता है कि कंपनी को मुनाफा हो रहा है या घाटा। मुनाफा हुआ तो इक्विटी बढ़ेगी, जैसे राम की दुकान में 20 हजार मुनाफा हुआ तो उसकी इक्विटी 1 लाख से 1.20 लाख हो जाएगी।
  • कंपनी का मूल्य: इक्विटी से मालिकों के लिए कंपनी की वैल्यू समझ आती है। अगर कंपनी बिके, तो मालिकों को कर्ज चुकाने के बाद इक्विटी जितना पैसा मिलेगा।
  • मालिक और शेयरधारक कितना विश्वास रखते हैं: इक्विटी कैपिटल यह भी दिखाता है कि कंपनी में मालिकों और निवेशकों का कितना पैसा लगा हुआ है। अगर लोग कंपनी में पैसा लगा रहे हैं, तो यह दिखाता है कि उन्हें कंपनी के भविष्य पर भरोसा है। यह निवेशकों के विश्वास का एक संकेत है।
  • कंपनी ने कितना मुनाफ़ा कमाया और उसे कैसे इस्तेमाल किया: इक्विटी कैपिटल का एक हिस्सा ‘रिटेन्ड अर्निंग्स’ (Retained Earnings) होता है। यह कंपनी के पिछले सालों का वो मुनाफ़ा है जिसे उसने शेयरधारकों में बांटा नहीं है, बल्कि वापस बिज़नेस में लगा दिया है। यह देखकर हमें पता चलता है कि कंपनी लगातार मुनाफ़ा कमा रही है और अपने मुनाफ़े को अपने विकास के लिए इस्तेमाल कर रही है।
  • कंपनी का असली मूल्य क्या है: इक्विटी कैपिटल का कुल मूल्य (या जिसे शेयरहोल्डर्स इक्विटी भी कहते हैं) बताता है कि अगर कंपनी की सारी संपत्तियों को बेच दिया जाए और सारे कर्ज़ चुका दिए जाएं, तो शेयरधारकों के लिए कितना पैसा बचेगा। यह कंपनी के शुद्ध मूल्य (Net Worth) को दर्शाता है।

सरल शब्दों में ,इक्विटी कैपिटल देखकर आप यह जान सकते हैं कि:

  • कंपनी खुद के पैसों पर कितना चलती है।
  • निवेशक उस पर कितना भरोसा करते हैं।
  • कंपनी ने अपने मुनाफ़े का क्या किया।
  • कंपनी का असली मूल्य (वास्तविक कीमत) क्या है।

सीधा-साधा उदाहरण –

आपने एक मोबाइल फ़ोन बेचने की दुकान शुरू की।

  • ₹20,000 अपने बचाए हुए पैसे लगाए। (यह आपका इक्विटी कैपिटल है)
  • ₹10,000 अपने दोस्त से उधार लिए। (यह आपकी देयता या कर्ज़ है)

अब, आपके पास कुल ₹30,000 हैं। इन पैसों से आपने फ़ोन खरीदे।

  • आपके पास जो फ़ोन हैं, उनकी कुल कीमत ₹30,000 है। (यह आपकी संपत्ति है)

तो, आपकी बैलेंस शीट ऐसी दिखेगी:

संपत्ति (30,000) = देयता (10,000) + इक्विटी (20,000)

यहाँ, ₹20,000 आपका इक्विटी कैपिटल है। यह दिखाता है कि आपने खुद कितना पैसा बिज़नेस में लगाया है, जो उधार नहीं है।

Inflation (मुद्रास्फीति) क्या होता हैऔर कैसे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है?

इन्फ्लेशन (महंगाई) का मतलब है कि चीजों की कीमतें समय के साथ बढ़ती जाती हैं। जैसे, अगर आज 10 रुपये में एक किलो आलू मिलता है, लेकिन अगले साल वही आलू 12 रुपये का हो जाए, तो इसे इन्फ्लेशन कहते हैं।

महँगाई क्यों होती है?

  • ज्यादा डिमांड, कम सप्लाई: अगर लोग किसी चीज को बहुत खरीदना चाहते हैं, लेकिन वो चीज कम है, तो उसकी कीमत बढ़ जाती है।
  • उत्पादन लागत बढ़ना: अगर सामान बनाने का खर्चा (जैसे, तेल, मजदूरी) बढ़ता है, तो चीजें महंगी हो जाती हैं।
  • पैसे की मात्रा बढ़ना: अगर बाजार में बहुत ज्यादा पैसे हो जाते हैं (जैसे, सरकार ज्यादा नोट छापे), तो लोग ज्यादा खर्च करते हैं, और कीमतें बढ़ जाती हैं।

महंगाई के मुख्य कारण (सरल भाषा में):-

जनसंख्या का तेजी से बढ़ना – जब लोग ज्यादा हो जाते हैं और चीजें उतनी नहीं बनतीं, तो मांग बढ़ जाती है और दाम भी।

कच्चे माल और खेती की लागत बढ़ना – बीज, खाद, पानी, मजदूरी सब महंगे हो जाएं तो अनाज और सब्जियां भी महंगी बिकती हैं।

बाजार में सामान की कमी (Artificial Shortage) -व्यापारी जानबूझकर चीजें छुपा लेते हैं ताकि बाद में ज्यादा दाम पर बेच सकें।

काला बाजारी और जमाखोरी – कुछ लोग जरूरी चीजें जैसे दाल, तेल, गैस छुपा लेते हैं और बाद में महंगे दामों पर बेचते हैं।

सरकारी नीतियों में गड़बड़ी – अगर सरकार सही समय पर सही फैसले नहीं लेती, तो चीजों के दाम काबू से बाहर हो जाते हैं।

प्राकृतिक आपदाएं (बाढ़, सूखा, भूकंप) – फसलें खराब हो जाती हैं, जिससे खाने-पीने की चीजें कम हो जाती हैं और महंगी बिकती हैं।

तेल और गैस के दाम बढ़ना -जब पेट्रोल-डीजल महंगे होते हैं, तो ट्रांसपोर्ट महंगा होता है और हर चीज की कीमत बढ़ जाती है।

नोट छापना (Currency Printing) – अगर सरकार ज़्यादा नोट छाप देती है, तो बाजार में पैसे की मात्रा बढ़ जाती है और चीजें महंगी हो

धन का असमान वितरण – अमीर लोग ज्यादा खरीदते हैं, जिससे मांग बढ़ती है और गरीबों को चीजें महंगी मिलती हैं

क्या महँगाई हमेशा बुरी होती है?

थोड़ी बहुत महँगाई (2-4%) अच्छी होती है → इससे व्यापार चलता है, लोग चीजें बेचते–खरीदते हैं, मजदूरों को काम मिलता है।

ज्यादा महँगाई (जैसे 10-15% या उससे ऊपर) बहुत बुरी होती है →

  • गरीब आदमी का जीवन कठिन हो जाता है
  • खाने-पीने की चीजें महँगी हो जाती हैं
  • बचत की कीमत कम हो जाती है (आज का 100 रुपये कल कम काम करेगा)
  • देश की अर्थव्यवस्था (Economy) कमजोर हो जाती है।

ये देश की अर्थव्यवस्था को कैसे नुकसान पहुंचाती है?

  1. लोगों की खरीदने की ताकत कम होती है: अगर आपकी कमाई वही रहती है, लेकिन चीजें महंगी हो जाती हैं, तो आप कम सामान खरीद पाते हैं। इससे गरीब लोग ज्यादा परेशान होते हैं।
  2. बचत कम होती है: लोग ज्यादा खर्च करने लगते हैं, क्योंकि पैसे की कीमत कम हो रही होती है। इससे बचत कम होती है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं।
  3. ब्याज दरें बढ़ती हैं: बैंक महंगाई को कंट्रोल करने के लिए लोन की ब्याज दरें बढ़ा देते हैं। इससे कारोबार करना मुश्किल हो जाता है।
  4. निर्यात पर असर: अगर देश में चीजें बहुत महंगी हो जाएं, तो दूसरे देशों को हमारा सामान खरीदना महंगा लगता है, जिससे व्यापार कम हो सकता है।
  5. असमानता बढ़ती है: अमीर लोग महंगाई में भी ठीक रहते हैं, लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग को ज्यादा नुकसान होता है।

निष्कर्ष:-

थोड़ी महंगाई अर्थव्यवस्था के लिए ठीक होती है, क्योंकि इससे कारोबार और विकास बढ़ता है। लेकिन अगर महंगाई बहुत ज्यादा हो जाए, तो ये लोगों की जेब पर भारी पड़ती है और देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर सकती है। इसे कंट्रोल करने के लिए सरकार और बैंक कई कदम उठाते हैं, जैसे ब्याज दरें बढ़ाना या पैसे की सप्लाई कम करना।

Fiscal Deficit ( राजकोषीय घाटा )क्या होता है और राष्ट्रीय बैंक और सरकारें इस पर क्यों ज्यादा ध्यान देती हैं?

जब सरकार का खर्च उसकी आय से ज्यादा हो जाता है, यानी सरकार जितना कमाती है (टैक्स और दूसरे साधन) उससे ज्यादा खर्च करती है—तो जो अंतर होता है, उसे फिस्कल डेफिसिट कहते हैं.

जब सरकार अपनी कमाई से ज़्यादा खर्च करती है, तो उस अंतर को राजकोषीय घाटा कहते हैं।
  • सरकार की कमाई = टैक्स, सरकारी कंपनियों से आय, आदि
  • सरकार का खर्च = सड़कें बनाना, स्कूल चलाना, सेना का खर्च, योजनाएं आदि

उदाहरण: अगर सरकार की कमाई ₹100 है और खर्च ₹120 है, तो ₹20 का घाटा हुआ — यही राजकोषीय घाटा है।

आसान भाषा में समझना

  • जैसे घर का बजट सोचो—अगर महीने की कमाई 8,000 रुपये है लेकिन खर्च 10,000 रुपये है, तो 2,000 रुपये का घाटा हो गया।

इस फर्क को पूरा करने के लिए सरकार उधार (लोन) लेती है ,बॉन्ड बेच कर या इंटरनेशनल बैंक से कर्जा लेती है |

सरकार यह घाटा पूरा कैसे करती है?

जब सरकार को ज़्यादा खर्च करना होता है, तो वो ये घाटा पूरा करने के लिए बाजार से कर्ज लेती है, जैसे बॉन्ड बेचकर या बैंक से उधार लेकर। यह पैसा सरकार विकास कार्यों में लगाती है, जैसे अस्पताल बनाना या बेरोजगारी भत्ता देना। लेकिन अगर घाटा ज्यादा बढ़ जाए, तो सरकार को ज्यादा कर्ज चुकाना पड़ता है, जिससे ब्याज का बोझ बढ़ता है।

सरल भाषा में: घाटा एक तरह का ‘क्रेडिट कार्ड’ जैसा है – आज खर्च करो, कल चुकाओ।

राष्ट्रीय बैंक (जैसे RBI) और सरकार इस पर ध्यान क्यों देती हैं?

राष्ट्रीय बैंक (जैसे मे RBI – Reserve Bank of India) और सरकारें इस पर ध्यान देती हैं क्योंकि:

  • ज्यादा घाटा हुआ तो सरकार को कर्जा ज्यादा लेना पड़ता है, जिससे देश का कुल कर्ज बढ़ जाता है।
  • इसका असर महंगाई पर भी पड़ सकता है—अगर सरकार ज्यादा पैसा खर्च करती है तो बाजार में पैसे ज्यादा आ जाते हैं, जिससे चीजों के भाव बढ़ सकते हैं.
  • ज्यादा घाटा से विदेशी निवेशक डर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लगेगा कि देश की आर्थिक स्थिति कमजोर है।
  • बैंक (जैसे RBI) ये देखता है कि सरकार उधार लेकर आर्थिक ग्रोथ पर खर्च कर रही है या सिर्फ पेंशन/सुब्सिडी में उधार ले रही है। ग्रोथ वाला खर्च अच्छा, लेकिन सिर्फ उधारी के सहारे चलना ठीक नहीं.
  • मुद्रा (currency) की कीमत गिर सकती है।
  • नीति बनाने में मदद: बैंक और सरकार घाटे को देखकर ब्याज दरें तय करती हैं या टैक्स नीतियां बदलती हैं। उदाहरण: RBI घाटे को देखकर मुद्रा नीति बनाता है ताकि अर्थव्यवस्था संतुलित रहे।,इसकी एक सीमा तय होती हैं (जैसे भारत में FRBM कानून के तहत घाटे को GDP के 3% तक रखने का लक्ष्य) ताकि देश की क्रेडिट रेटिंग अच्छी रहे और कर्ज आसानी से मिले।

यह देश की अर्थव्यवस्था में कैसे मदद करता है?

राजकोषीय घाटा हमेशा बुरा नहीं होता; यह अर्थव्यवस्था की मदद भी करता है

अच्छा फिस्कल डेफिसिट तब होता है जब सरकार उधार लेकर देश के लिए स्कूल, अस्पताल, सड़क जैसी चीजें बनाती है। इससे:

  • इससे रोजगार बढ़ता है
  • इससे देश में उत्पादन और व्यापार बढ़ता है
  • सरकार का ज़्यादा खर्च नौकरियाँ पैदा करता है
  • बाज़ार में पैसा आता है, जिससे व्यापार बढ़ता है।
  • GDP बढ़ती है, यानी देश की आर्थिक ताकत बढ़ती है।
  • इससे लोगों की भलाई और देश की ताकत बढ़ती है
  • संकट में सहारा -अगर अर्थव्यवस्था सुस्त है, तो घाटा सरकार को ‘पंप प्राइमिंग’ करने देता है – मतलब, पैसा डालकर इंजन चालू करना
लेकिन घाटा बहुत बढ़ गया तो देश पर कर्ज का बोझ बढ़ता जाता है—फिर ब्याज चुकाना ही मुश्किल हो सकता है, जो कि ठीक नहीं 

इसको निकलते कैसे है –

फिस्कल डेफिसिट = कुल खर्च – (कुल आय, उधार को छोड़कर)

इसे जीडीपी के प्रतिशत के रूप में बताते हैं—जैसे “इस साल भारत का फिस्कल डेफिसिट 5% है” मतलब जीडीपी का 5% सरकार घाटे में खर्च कर रही है।

सरकार घाटा कम करने के लिए कौन‑कौन से कदम लेती है –

  • कर सुधार: टैक्स चोरी रोकना, टैक्स सिस्टम को आसान बनाना, बेस बढ़ाना, और डिजिटलाइजेशन लाना ताकि ज्यादा लोग टैक्स दें और सरकार की आय बढ़े.
  • सरकारी खर्च में कटौती: गैर-जरूरी सब्सिडी, फालतू योजनाओं या प्रशासनिक खर्च को कम करना; फालतू मुफ्त देने पर रोक लगाना.
  • राजस्व बढ़ाना: सरकारी कंपनियों की बिक्री (निजीकरण), नई टैक्स योजनाएँ लाना, और सार्वजनिक संसाधनों का बेहतर उपयोग करना.
  • छूट और सब्सिडी को तर्कसंगत बनाना: मौजूदा छूटों/सब्सिडी को ऐसे डिज़ाइन करना कि सिर्फ ज़रूरतमंद को मिले और अनावश्यक बोझ बजट पर न पड़े.
  • आर्थिक विकास को तेज़ करना: निवेश बढ़ाकर, इंफ्रास्ट्रक्चर और उद्योगों को बढ़ावा देना जिससे ज्यादा रोजगार और व्यापार पैदा हो ताकि आगे चलकर सरकार का टैक्स कलेक्शन भी बढ़ जाए.
  • उधारी सावधानी से लेना: सरकार उधारी या बॉन्ड इश्यू करते वक्त ध्यान रखती है कि ब्याज का बोझ काबू में रहे। साथ ही, ज्यादा बाहरी कर्ज से बचती है ताकि विदेशी दबाव न हो.
  • कैपेक्स (पूंजीगत व्यय) को प्राथमिकता देना: ऐसा खर्च जिससे लंबे वक्त में सरकार को फायदा मिले—जैसे सड़कें, रेलवे, बिजली आदि पर खर्च ज्यादा फायदेमंद है क्योंकि इससे आगे जाकर आय बढ़ती है.